SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 515
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ४८१ परिशिष्ट ] रित्युच्यते - जिस स्थितिस्थान से अपवर्तनाकरण के द्वारा उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होती है, उतनी स्थिति को डायस्थिति कहते हैं । अथवा यतः स्थितिस्थानान्मण्डूकप्लुतिन्यायेन डायां दत्वा या स्थितिर्बध्यते तताः प्रभृति तदन्ता तावती स्थितिर्वद्धा डायस्थितिरिहोच्यते जिस स्थितिस्थान से मंडूकप्लुतिन्याय के द्वारा डायफाल को देकर जो स्थिति बांधी जाती है, वहां से ले कर उसके अंत तक बंधने वाली स्थिति डायस्थिति कहलाती है । - डायस्थिति तीन प्रकार की है - अपवर्तन डायस्थिति, उद्वर्तन डायस्थिति और बद्धडायस्थिति । १. इन तीनों डायस्थितियों का स्वरूप इस प्रकार है जिस स्थितिस्थान से उतर कर अपवर्तनाकरण से अनन्तर समय में जिस निम्न स्थिति की ओर जाये, उन नीचे के स्थितिस्थानों तक की स्थितियों के समुदाय को अपवर्तना डायस्थिति कहते हैं । यथा १०० समय की स्थिति में उससे उतर कर अपवर्तनाकरण से ७० से १० तक की ६० स्थितियां प्राप्त हों, उनमें से जो ७० की प्राप्त हों, तब १०० से ७० तक की स्थितियों में से ३० स्थितियों को अपवर्तना डायस्थिति समझना चाहिये । - वस्तुतः अपवर्तन डायस्थिति स्थितिघात के समय में सैंकड़ों सागर प्रमाण अथवा अन्तः कोडाकोडी सागरोपम के संख्यातवां भाग जितनी होती है । २. जिस स्थितिस्थान से चल कर उद्वर्तनाकरण से अनन्तर समय में जितनी स्थितियां अधिक हों, उस अधिक स्थिति को उद्वर्तना डायस्थिति कहते हैं । ३. जिस स्थितिस्थान से चल कर अधिक से अधिक जितना स्थितिबंध अनन्तर समय में किया जाये, वहां से प्रारम्भ करके उत्कृष्ट स्थितिबंध तक की स्थितियों के समुदाय को बद्धडायस्थिति कहते हैं । वस्तुतः बद्धडायस्थिति अन्तः कोडाकोडी सागरोपम न्यून ७० कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण है । उद्वर्तन डायस्थिति भी बद्धडायस्थिति के तुल्य होने के कारण उसे पृथक् नहीं कहा है, ऐसा प्रतीत होता है। विशेष तो बहुश्रुतगम्य है । सेचीका यासां स्थितिनां भेदपरिकल्पना संभवति ताः पूर्वपुरुषपरिभाषया - सेचीका इत्युच्यते जिन स्थितियों की भेद परिकल्पना संभव है उनको पूर्वपुरुषों ने सेचीका कहा है। सेचीका का अपर नाम सेवीका भी है। —
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy