________________
संक्रमकरण ]
का, य और, वेयणीय - वेदनीय, गोएसु - गोत्र में ।
1
[ १३
गाथार्थ – दूसरे कर्म दर्शनावरण में नौ छह और चार प्रकृतिक स्थान में नौ का, तथा छह प्रकृतिस्थान का चार प्रकृतिस्थान में संक्रमण होता है । वेदनीय और गोत्र कर्म में बध्यमान अन्यतर (किसी एक ) प्रकृति में अवध्यमान कोई एक प्रकृति संक्रमित होती है ।
विशेषार्थ – दूसरे कर्म दर्शनावरण में नवप्रकृतिक षट्प्रकृतिक और चतुष्कप्रकृतिक स्थान में नवक का संक्रमण होता है तथा षट्प्रकृतिक स्थान चतुष्क प्रकृतिक स्थान में सक्रान्त होता है । इसलिये इस कर्म में नवक और षट्क प्रकृतिरूप दो संक्रमस्थान तथा नवक, षट्क और चतुष्क रूप तीन पतद्ग्रह स्थान होते हैं । इनमें से नवक रूप पतद्ग्रह में मिथ्यादृष्टि और सास्वादन सम्यग् दृष्टि जो कि नौ प्रकार के दर्शनावरण कर्म के बंधक हैं, वे नौ प्रकृतियों का संक्रमण करते हैं। यह नवक रूप पतद्ग्रहं सादि अनादि ध्रुव अध्रुव के रूप से चार प्रकार का है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है सम्यग्मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों में नौ प्रकृतियों का बंध नहीं होता है किन्तु वहां से प्रतिपात होने पर नवक का बंध होता है । इसलिये वह सादि है और उस स्थान को अप्राप्त जीव के अनादि संक्रम तथा ध्रुव अध्रुव क्रमशः अभव्य और भव्य की अपेक्षा से जानना चाहिये ।
-
सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान के असंख्यात्वें भाग तक नौ प्रकार के दर्शनावरण की सत्ता वाले जीव छह प्रकार के दर्शनावरण के बंधक होते हैं, वे उस षट्क स्थान में नवक का संक्रमण करते हैं । यह षट्क रूप पतद्ग्रह कादाचित्क होने से सादि और अध्रुव है तथा अपूर्वकरण गुणस्थान के संख्यातवें भाग में निद्रा और प्रचला का बंधविच्छेद हो जाने पर उससे ऊपर सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान के अंतिम समय तक उपशम श्रेणी में नौ ही प्रकार के दर्शनावरण कर्मों की सत्तावाले जीव जो चक्षुदर्शनावरण आदि चार प्रकार के दर्शनावरण कर्म के बंध करने वाले हैं, वे उन चार प्रकृतियों में दर्शनावरण की नौ प्रकृतियों को संक्रमित करते हैं । यह चार प्रकृतिक रूप पतद्ग्रह कादाचित्क होने से सादि और अध्रुव है ।
नवकरूप संक्रमस्थान चार प्रकार का है - सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव । वह इस प्रकार कि यह संक्रमस्थान सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान से आगे उपशान्तमोहगुणस्थान में नहीं होता है, किन्तु वहां से प्रतिपात होने पर होता है । इसलिये वह सादि है और उस स्थान को प्राप्त नहीं होने वाले जीव के अनादि है । और अध्रुवपना अभव्य और भव्य जीव की अपेक्षा से है ।
क्षपक श्रेणी में अनिवृतिकरण काल का संख्यातवां भाग शेष रहने पर स्त्यानर्द्धित्रिक का क्षय हो जाने से आगे सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान के अंतिम समय तक छह प्रकार के दर्शनावरण की सत्ता वाले जीव चक्षुः आदि दर्शनावरणचतुष्क को बांधते हुये उस दर्शनावरणचतुष्क में दर्शनावरणषट्क का