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________________ संक्रमकरण ] [ ११ समय पतद्ग्रहता नहीं होती है, अर्थात् उस समय उन प्रकृतियों में दूसरी प्रकृतियों के कुछ भी दलिक संक्रमित नहीं होते हैं । किन्तु अपने-अपने बंधकारण के सम्पर्क से बंध का आरम्भ होने पर पतद्ग्रहता होती है। इसलिये उनका संक्रम सादि है और उस बंधविच्छेद के स्थान को अप्राप्त जीव के अनादि संक्रम होता है । ध्रुव और अध्रुव संक्रम अभव्य और भव्य की अपेक्षा से होते हैं। पूर्वोक्त के अतिरिक्त (साइ इत्यादि) अर्थात् शेष जो अध्रुवबंधिनी अठासी प्रकृतियां हैं, उनकी सादि अध्रुव पतद्ग्रहता अध्रुवबंधिनी होने से ही जानना चाहिये तथा मिथ्यात्व के ध्रुवबंधिनी होने पर भी जिस जीव के सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व विद्यमान होते हैं, वही उन दोनों को उसमें संक्रमित करता है, अन्य नहीं। इसलिये उसकी भी सादि और अध्रुव पतद्ग्रहता जानना चाहिये। इस प्रकार एक-एक प्रकृति के संक्रम और पतद्ग्रहत्व की सादि प्ररूपणा समझना चाहिये। प्रकृतिस्थानों में सादि-अनादि एवं संक्रम पतद्ग्रह प्ररूपणा अब प्रकृतिस्थानों में सादि आदि प्ररूपणा करते हैं - पगइठाणे वि तहा, पडिग्गहो संकमो य बोधव्वो। पढमंतिमपगईणं, पंचसु पंचण्ह दो वि भवे॥८॥ शब्दार्थ - पगइठाणे - प्रकृतिस्थान में, वि – भी, तहा – उसी प्रकार, पडिग्गहो - पतद्ग्रहता, संकमो - संक्रम, य - और, बोधव्वो – जानना चाहिये, पढमंतिमपगईणं - प्रथम और अंतिम कर्म (ज्ञानावरण और अंतराय कर्म) की, पंचसु - पांचों प्रकृतियों में, पंचण्हं – पांचों का, दोवि – दोनों, भवे – होते हैं। गाथार्थ – प्रत्येक प्रकृतिस्थान में भी इसी प्रकार पतद्ग्रहता और संक्रम जानना चाहिये तथा प्रथम कर्म ज्ञानावरण और अंतिम कर्म अन्तराय की पांचों प्रकृतियों का पांचों ही प्रकृतियों में दोनों ही (पतद्ग्रहत्वा और संक्रम) होते हैं। विशेषार्थ - जैसे एक-एक प्रकृति का पतद्ग्रहत्व और संक्रम सादि आदि रूप से कहा उसी प्रकार प्रकृतिस्थानों में भी जानना चाहिये। दो, तीन आदि प्रकृतियों के समुदाय को प्रकृतिस्थान १. पतद्ग्रह प्रकृतियों में से ६७ ध्रुवबंधिनी प्रकृतियां सादि आदि चारों भंग वाली तथा मिथ्यात्व मोहनीय और ८८ अध्रुव बंधिनी प्रकृतियां सादि अध्रुव इन दो भंगो वाली हैं । लेकिन यहां अध्रुवबंधिनी ८६ प्रकृतियों में सादि अध्रुव पतद्ग्रहता संभव है क्योंकि ध्रुवबंधिनी ६८ प्रकृतियों को कम करने पर शेष रही ९० प्रकृतियां अध्रुवबंधिनी है, उनमें से आयुचतुष्क में पतद्ग्रहता नहीं है अतएव ९० में से ४ को कम करने पर ८६ प्रकृतियां शेष रहती हैं।
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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