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________________ सत्ताप्रकरण ] [ ४०१ इन चौदह प्रकृतियों का स्थितिसत्व सर्वापवर्तना के द्वारा अपवर्तित कर क्षीणकषाय के शेष काल के समान करता है और निद्रा एवं प्रचला का स्थितिसत्व उनसे एक समय कम करता है। उस समय स्थितिघात आदि सर्व कार्य विशेष निवृत्त हो जाते हैं और जो भी क्षीणकषाय के काल के समान स्थितिसत्व अपवर्तनाकरण से अपवर्तित करके किया गया है, वह भी क्रम से यथासंभव उदय और उदीरणा के द्वारा क्षय को प्राप्त होता हुआ तब तक कहना चाहिये जब तक एक स्थिति शेष रहती है। उस स्थिति में क्षपितकर्मांश का जो सर्वजघन्य प्रदेशसत्व है, वह प्रथम प्रदेशसत्वस्थान है। तत्पश्चात् उसमें एक परमाणु के प्रक्षेप करने पर दूसरा प्रदेशसत्वस्थान होता है। इस प्रकार एक एक परमाणु की वृद्धि से लगातार प्रदेशसत्वस्थान तब तक कहना चाहिये जब तक गुणितकर्मांश का सर्वोत्कृष्ट प्रदेशसत्वस्थान प्राप्त होता है। इन सब सत्वस्थानों का समुदाय रूप एक स्पर्धक होता है। दो स्थितियों के शेष रहने पर उक्त प्रकार से दूसरा स्पर्धक होता है। तीन स्थितियों के शेष रहने पर तीसरा स्पर्धक होता है। इस प्रकार क्षीणकषाय गुणस्थान के काल बराबर किये गये प्रदेशसत्व में जितने स्थितिभेद होते हैं, उतने ही स्पर्धक कहना चाहिये और अंतिम स्थितिघात के चरम प्रक्षेप को आदि करके पश्चातानुपूर्वी से प्रदेशसत्वस्थान यथोत्तर बढते हुए तब तक कहना चाहिए जब तक अपना अपना सर्वोत्कृष्ट प्रदेशसत्वस्थान प्राप्त होता है। इसी कारण स्थितिघात के विच्छेद से परे क्षीणकषाय काल के समय प्रमाण स्पर्धक उससे अधिक प्राप्त होते हैं। लेकिन 'निद्दापयलाण हिच्चेकं' अर्थात निद्रा और प्रचला के एक स्पर्धक को छोड़कर स्पर्धक कहना चाहिये यानि निद्रा प्रचला के स्पर्धक द्विचरम स्थिति को आश्रय करके यह कहना चाहिये। क्योंकि क्षीणकषाय गुणस्थान के अंतिम समय में निद्रा और प्रचला के दलिक नहीं पाये जाते हैं। इसलिये इनके स्पर्धक शेष घातिकर्मों के स्पर्धकों से एक कम जानना चाहिये यथा - सेलेसिसंतिगाणं, उदयवईणं तु तेण कालेणं। तुल्ला गहियाई, सेसाणं एगऊणाई॥४९॥ शब्दार्थ – सेलेसिसंतिगाणं - शैलेशी-अवस्था में सत्ता वाली, उदयवईणं - उदयवती प्रकृतियों के, तु – किन्तु, तेण कालेणं - उसके काल से, तुल्ला – तुल्य, णेगहियाई - और एक अधिक, सेसाणं - शेष (अनुदयवती में), एगऊणाई - एक स्पर्धक हीन। गाथार्थ – शैलेशी-अवस्था में सत्ता वाली उदयवती प्रकृतियों के स्पर्धक उसके काल के तुल्य और एक स्पर्धक अधिक होते हैं। किन्तु शेष अनुदयवती प्रकृतियों के उससे एक कम होते हैं। विशेषार्थ – अयोगिकेवली की अवस्था को शैलेशी कहते हैं और उस शैलेशी-अवस्था,
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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