SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 419
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्ताप्रकरण ] [ ३८५ अनन्तर समय में वह मिथ्यात्व को प्राप्त करता है) उस समय में अर्थात् बंध काल के अंतिम समय में उनका अर्थात् मनुष्यद्विक और वज्रऋषभनाराच संहनन का उत्कृष्ट प्रदेशसत्व होता है तथा – सम्मदिविधुवाणं, बत्तीसुदहीसयं चउक्खुत्तो। उवसामइत्तु मोहं, खवेंतगे नियगबंधते ॥ ३६॥ - शब्दार्थ – सम्मदिविधुवाणं – सम्यग्दृष्टि के योग्य ध्रुव (बंधनी) प्रकृतियों को बत्तीसुदहीसयं – एक सौ बत्तीस सागरोपम, चउक्खुत्तो - चार बार, उवसामइत्तु – उपशमित कर मोहं – मोहनीय को, खवेंतगे - क्षपण करने को तत्पर, नियगबंधते - अपने अपने बंध के अंत में। गाथार्थ - सम्यग्दृष्टि जीव के योग्य ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों को एक सौ बत्तीस सागरोपम तक बांधकर और मोहनीय को चार बार उपशमित कर क्षपण के लिये तत्पर जीव के अपने अपने बंध के अंत में उत्कृष्ट प्रदेशसत्व होता है। विशेषार्थ – जो प्रकृतियां सम्यग्दृष्टियों के ही बंध होने से ध्रुवबंधिनी हैं ऐसी पंचेन्द्रियजाति, समचतुरस्रसंस्थान, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, सुस्वर, सुभग और आदेय रूप बारह प्रकृतियों का एक सौ बत्तीस सागरोपम काल तक बंध से संचय करके चार बार मोहनीय कर्म को उपशमाकर (क्योंकि मोहनीय को उपशमता हुआ जीव बहुत दलिकों को गुणसंक्रमण से संक्रमाता है, इस कारण चार बार मोहनीय के उपशम को यहां कहा है।) कर्मक्षपण के लिये उद्यत जीव के अपने अपने बंधविच्छेद के काल में उत्कृष्ट प्रदेशसत्व होता है तथा – धुवबंधीण सुभाणं, सुभथिराणं च नवरि सिग्घयरं। तित्थगराहारगतणू, तेत्तीसुदही चिरचिया य॥ ३७॥ शब्दार्थ - धुवबंधीण – ध्रुवबंधिनी, सुभाणं - शुभ प्रकृतियों का, सुभथिराणं - शुभ, स्थिर, च - और, नवरि - विशेष, सिग्घयरं - शीघ्रता (अतिशीघ्र), तित्थगराहारगतणुतीर्थंकर और आहारकसप्तक का, तेत्तीसुदही – तेतीस सागरोपम, चिरचियाय - चिर काल तक, बंध से पूरित करने वाले के। गाथार्थ – ध्रुवबंधिनी (बीस) शुभ प्रकृतियों का, शुभ और स्थिर नाम का भी इसी प्रकार उत्कृष्ट प्रदेशसत्व जानना चाहिये। विशेष यह है कि अतिशीघ्र क्षपण करने के लिये उद्यत हुए जीव के उनका उत्कृष्ट प्रदेशसत्व होता है। तीर्थंकर नाम का साधिक तेतीस सागरोपम तक और
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy