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________________ सत्ताप्रकरण ] [ ३७९ अनुत्कृष्ट और जघन्य। इनमें से उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशसत्व गुणितकर्मांश मिथ्यादृष्टि जीव के पाये जाते हैं। इसलिये वे दोनों सादि और अध्रुव हैं। जघन्य विकल्प पूर्ववत् जानना, इसी प्रकार अनन्तानुबंधीचतुष्क, संज्वलनलोभ और यश:कीर्ति के भी उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट प्रदेशसत्व जानना चाहिये। जघन्य प्रदेशसत्व का ऊपर उल्लेख किया गया है। शेष अध्रुवसत्ताका प्रकृतियों को अध्रुव सत्व वाली होने से उनके चारों ही विकल्प सादि और अध्रुव जानना चाहिये। इस प्रकार प्रदेशसत्व की सादि अनादि प्ररूपणा का कथन है। प्रदेशसत्वस्वामी निरूपण अब स्वामित्व का कथन करते हैं। वह दो प्रकार का है - १. उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म स्वामित्व और २. जघन्य प्रदेशसत्कर्म स्वामित्व। इनमें से पहले उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म स्वामित्व को बतलाते हैं - संपुन गुणियकम्मो पएसउक्कस्स संत सामी उ। तस्सेव उ उप्पिवि - णिग्गयस्स कासिंचि वण्णेऽहं ॥ २७॥ शब्दार्थ – संपन्नगुणियकम्मो - सम्पूर्ण गुणितकर्मांश, पएसउक्कस्ससंतसामी - उत्कृष्ट प्रदेशसत्व का स्वामी, उ – और, तस्सेव – उसी के, उ - किन्तु, उप्पिविणिग्गयस्स – ऊपर निकले हुए के, कासिंचि - कितनी ही प्रकृतियों की, वण्णेऽहं – वर्णन करता हूँ। गाथार्थ - सम्पूर्ण गुणितकर्मांश जीव को उत्कृष्ट प्रदेशसत्व का स्वामी जानना चाहिये। किन्तु कितनी ही प्रकृतियों के स्वामित्व में वहां से ऊपर निकले हुए जीव के कुछ विशेषता है, उसी का मैं वर्णन करता हूँ। विशेषार्थ - प्रायः सभी प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशसत्व का स्वामी गुणितकांश सप्तम पृथ्वी में चरम समय में वर्तमान नारक जानना चाहिये। किन्तु कितनी ही प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशस्वामित्व में विशेषता है, जो उसी गुणितकर्मांश और सप्तम पृथ्वी से ऊपर निकले हुए जीव के होता है, उसी का मैं वर्णन करता हूँ - अब आचार्य अपने प्रतिज्ञात अर्थ को स्पष्ट करते हुए कहते हैं - मिच्छत्ते मीसम्मि य, संपक्खित्तम्मि मीससुद्धाणं वरिसवरस्स उ ईसाणगस्स चरमम्मि समयम्मि॥ २८॥
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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