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________________ सत्ताप्रकरण ] [ ३६३ छोड़कर मिथ्यादृष्टि हो गया, तत्पश्चात् मरण कर नरक में उत्पन्न होता हुआ अन्तर्मुहूर्त के अनंतर पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त हो जाता है। तब मिथ्यादृष्टि में अन्तर्मुहूर्त काल तक छियानवै प्रकृतिक सत्वस्थान पाया जाता है। किन्तु आहारकसप्तक और तीर्थकर नाम की सत्ता वाला जीव मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं होता है। कहा भी है - उभए संति न मिच्छो। ___ अर्थात् तीर्थंकर और आहारक इन दोनों की सत्ता रहते हुए जीव मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं होता है। इसलिये एक सौ तीन प्रकृतिक सत्वस्थान मिथ्यादृष्टि में नहीं पाया जाता है। सास्वादन सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि इन दो गुणस्थानों में दो-दो प्रकृतिक सत्वस्थान होते हैं, यथा – १ एक सौ दो प्रकृतिक और २ पंचानवै प्रकृतिक। 'पंचसु चत्तारि' अर्थात् पांच गुणस्थानों में यानि अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान ले लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान तक प्रत्येक में चार चार प्रकृति सत्वस्थान होते हैं, यथा १ एक सौ तीन प्रकृतिक, २ एक सौ दो प्रकृतिक, ३ छियानवै प्रकृतिक और, ४ पंचानवै प्रकृतिक। शेष सत्वस्थान क्षपकश्रेणी में और एकेन्द्रियादि जीवों में पाये जाते हैं। इस कारण वे इन गुणस्थानों में नहीं पाये जाते हैं। ___'अट्ठगं दोसु' अर्थात् अनिवृत्तिबादर और सूक्ष्मसंपराय इन दो गुणस्थानों में आठ आठ प्रकृति सत्वस्थान होते हैं, यथा – १ एक सौ तीन प्रकृतिक, २ एक सौ दो प्रकृतिक, ३ छियानवै प्रकृतिक, ४ पंचानवै प्रकृतिक, ५ नव्वै प्रकृतिक, ६ नवासी प्रकृतिक, ७ तेरासी प्रकृतिक और ८ बयासी प्रकृतिक। इनमें से अनिवृत्तिबादर के आदि के चार सत्वस्थान उपशमश्रेणी में अथवा क्षपकश्रेणी में, जब तक तेरह प्रकृतियां क्षय नहीं होती हैं, तब तक पाये जाते हैं और शेष स्थान क्षपकश्रेणी में ही पाये जाते हैं। सूक्ष्मसंपराय में आदि के चार प्रकृतिक सत्वस्थान उपशमश्रेणी में और शेष चार स्थान क्षपकश्रेणी में पाये जाते हैं। ___ 'तीसु चउक्कं' अर्थात उपशांतमोह क्षीणमोह और सयोग केवली इन तीन गुणस्थानों में चार चार प्रकृति सत्वस्थान होते हैं। उनमें से उपशांतमोह में १ एक सौ तीन प्रकृतिक, २ एक सौ दो प्रकृतिक, ३ छियानवै प्रकृतिक, ४ पंचानवै प्रकृतिक ये चार तथा क्षीणमोह और सयोगिकेवली में १ नव्वै प्रकृतिक, २ नवासी प्रकृतिक, ३ तेरासी प्रकृतिक और ४ बयासी प्रकृतिक ये चार स्थान होते हैं। ___ 'छत्तु अजोगम्मि ठाणाणि' अर्थात अयोगिकेवली में छह प्रकृति सत्वस्थान होते हैं, यथा१ नव्वै प्रकृतिक, २ नवासी प्रकृतिक, ३ तेरासी प्रकृतिक, ४ बयासी प्रकृतिक, ५ नौ प्रकृतिक और
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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