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________________ [ कर्मप्रकृति आहारक और तीर्थंकर नामकर्म सभी गुणस्थानों में भजनीय है। लेकिन इतना विशेष है। कि सास्वादन सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि इन दो गुणस्थानों में तीर्थंकर नाम नियम से नहीं पाया जाता है। क्योंकि तीर्थंकर नामकर्म की सत्तावाले जीव का स्वभाव से ही उक्त दोनों गुणस्थानों में गमन नहीं होता है । इस प्रकार एक एक प्रकृति - सत्कर्म का विचार किया जाना चाहिये । ३५६ ] प्रकृतिस्थान- सत्कर्म निरूपण अब प्रकृतिस्थान- सत्कर्म का प्रतिपादन करते हैं पढमचरिमाणमेगं, छन्नवचत्तारि बीयगे तिन्नि । वेयणियाउयगोएसु, दोन्नि एगो त्ति दो होंति ॥ १० ॥ १. जो अप्रमत्त संयतदि आत्मा संयम के निमित्त आहारक सप्तक का बंधन करके विशुद्धि वश उपरितन गुणस्थानों पर आरोहण करता है किंतु अशुद्ध अध्यवसायों के कारण पुनः नीचे गिर जाता है। ऐसे पतितमान जीव के आहारकसप्तक की सत्ता सभी गुणस्थानों में होती है। परंतु जो जीव आहारकसप्तक का बंधन नहीं करता है और बंध के बिना ही उपरितन गुणस्थानों पर आरोहण करता है। उस जीव के उन-उन गुणस्थानों में आहारकसप्तक की सत्ता नहीं होती है। जो जीव अविरत सम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थान से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान के षट्भागों तक सम्यक्त्व के निमित्त से तीर्थंकर नाम कर्म प्रकृति का बंधन करके उपरितन गुणस्थानों पर आरोहण करता है। किंतु कोई जीव तीर्थंकर नाम का बंधन करने के बाद अविशुद्धि के कारण मिध्यात्व गुणस्थान में भी आ जाता है। तब सास्वादन और मिश्र गुणस्थान को छोड़कर बारह ही गुणस्थानों में तीर्थंकर नामकर्म प्रकृति की सत्ता पाई जाती है। किंतु जो विशुद्ध सम्यक्त्वी होते हुए भी तीर्थंकर नामकर्म का बंधन नहीं करता है। उस जीव की अपेक्षा सभी गुणस्थानों में तीर्थंकर नामकर्म की सत्ता नहीं पाई जाती है। अतः आहारकसप्तक और तीर्थंकर नाम प्रकृति के बंधन की अनिवार्यता नहीं होने से इन दोनों प्रकृतियों की सत्ता अनिवार्य रूप से नहीं पाई जाती है। तीर्थंकर और आहारक इन दोनों प्रकृतियों की सत्ता एक साथ मिध्यादृष्टि में नहीं पाई जाती है। कहा भी है- "उभए संति न मिच्छो" तीर्थकर नामकर्म की सत्ता वाला मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में अन्तर्मुहूर्त काल से अधिक नहीं रहता है। यथा - " तित्थगरे अन्तर मुहुत्तं" इसका तात्पर्य यह है - जो जीव नरक आयु का बंधन करके तदनंतर तीर्थंकर नाम प्रकृति का बंधन कर चुका है ऐसा वेदक सम्यग्दृष्टि जीव नरक में जाते समय में अन्तर्मुहूर्त काल तक अवश्य सम्यक्त्व रहित होकर मिथ्यात्व अवस्था में आ जाता है। नरक में उत्पत्ति के अनंतर अन्तर्मुहूर्त के व्यतीत होने के बाद सम्यक्त्व बन जाता है। इस अपेक्षा से अन्तर्मुहूर्त काल तक तीर्थंकर नामकर्म की सत्ता वाले जीव के मिथ्यात्व का उदय होता है।
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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