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[कर्मप्रकृति
यथा -
अपुमित्धीए समं वा, हासछक्कं च पुरिससंजलणा।
पत्तेगं तस्स कमा, तणुरागंतोत्ति लोभो य ॥ ७॥ शब्दार्थ – अपुमित्थीए – नपुंसकवेद और स्त्रीवेद, समं - साथ, वा - अथवा, हासछक्कं – हास्यषट्क, च - और, पुरिस – पुरुषवेद, संजलणा - संज्वलन कषायें, पत्तेग - प्रत्येक, तस्स – उनका, कमा - अनुक्रम से, तणुरागंतोत्ति – सूक्ष्मसंपराय के अन्त में, लोभो – संज्वलन लोभ, य - और।
गाथार्थ – (पूर्वोक्त सोलह प्रकतियों के क्षय के पश्चात् ) नंपुसकवेद और स्त्रीवेद का एक साथ अथवा क्रम से तत्पश्चात् हास्यषट्क और पुरुषवेद का एक साथ अथवा क्रम से तथा संज्वलन प्रत्येक कषायों का क्रम से क्षय होता है और सूक्ष्मसंपराय के अंत में संज्वलन लोभ का क्षय होता है।
विशेषार्थ – अनिवृत्तिबादर गुणस्थान में पूर्वोक्त सोलह प्रकृतियों के क्षय के अनन्तर संख्यात स्थितिखंडों के व्यतीत होने पर नपुंसकवेद क्षय को प्राप्त होता है। जब तक उसका क्षय नहीं होता है तब तक उसका सत्व रहता है। तत्पश्चात् पुनः संख्यात स्थितिखंडों के व्यतीत होने पर स्त्रीवेद क्षय को प्राप्त होता है। वह भी जब तक क्षय नहीं होता है, तब तक उसका सत्व रहता है। इस प्रकार यह क्षय का क्रम स्त्रीवेद के साथ अथवा पुरुषवेद के साथ क्षपकश्रेणी को प्राप्त हुए जीव के जानना चाहिये। किन्तु नपुंसकवेद से क्षपकश्रेणी पर चढ़े हुए जीव के स्त्रीवेद और नपुंसकवेद एक साथ क्षय को प्राप्त होते हैं । अतएव जब तक वे क्षय को प्राप्त नहीं होते हैं तब तक उनका सत्व रहता है। परन्तु उपशमश्रेणी की अपेक्षा उपशान्तमोह गुणस्थान तक उन दोनों का सत्व रहता है।
स्त्रीवेद का क्षय होने के अनन्तर संख्यात स्थितिखंडों के व्यतीत होने पर हास्यादि षट्क, एक साथ क्षय को प्राप्त होते हैं । तत्पश्चात् एक समय कम दो आवलिका काल बीतने पर पुरुषवेद क्षय को प्राप्त होता है। यह विधान पुरुषवेद के साथ क्षपकश्रेणी पर चढ़े हुए जीव का जानना चाहिये। किन्तु स्त्रीवेद के साथ अथवा नपुंसकवेद के साथ क्षपकश्रेणी को प्राप्त हुए जीव के पुरुषवेद और हास्यादिषट्क एक साथ क्षय को प्राप्त होते हैं।
पुरुषवेद के क्षय होने के अनन्तर संख्यात स्थितिखंडों के व्यतीत होने पर संज्वलन क्रोध क्षय को प्राप्त होता है। तदनन्तर पुनः संख्यात स्थितिखंडों के व्यतीत होने पर संज्वलनमान क्षय को प्राप्त होता है। तत्पश्चात् पुनः संख्यात स्थितिखंडों के व्यतीत होने पर संज्वलनमाया क्षय को प्राप्त होती है। इस प्रकार ये हास्यादि प्रकृतियां जब तक क्षय को प्राप्त नहीं होती हैं, तब तक उनका