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________________ [ ३४७ उदयप्रकरण ] के होता है, अपर्याप्त के नहीं होता है । इस कारण पर्याप्त अवस्था में देवगति का जघन्य प्रदेशोदय होता है । 'आहारिजाइ' इत्यादि अर्थात् जो संयत चिरकाल तक यानि देशोन पूर्वकोटि वर्ष तक संयम का अनुपालन कर अंतिम समय में आहारकशरीरी हुआ है और उद्योत का वेदन करता है, उसके आहारकसप्तक का जघन्य प्रदेशोदय होता है । क्योंकि चिरकाल तक संयम का परिपालन करने पर बहुत से कर्मपुद्गल निर्जरा को प्राप्त हो जाते हैं । इस कारण 'चिरकाल संयम का भी परिपालन कर ' इस पद का ग्रहण किया है और उद्योत के ग्रहण करने का कारण पूर्व कथनानुसार जानना चाहिये तथा सेसाणं चक्खुसमं, तंमि व अन्नंमि व भवे अचिरा । तज्जोगा बहुगीओ, पवेययं तस्स ता ताओ ॥३२॥ शब्दार्थ – सेसाणं • शेष प्रकृतियों का, चक्खुसमं चक्षु ( दर्शनावरण) के समान, तंमि - उसी समय, व अथवा, अन्नंमि अन्य में, भवे भव में, अचिरा जघन्य, तज्जोगा - उस उस के योग्य, बहुगीओ - बहुत सी पवेययं - वेदन करने वाले, ताताओ . उसके, तस्स उन उन का । - - - - गाथार्थ शेष प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशोदय चक्षुदर्शनावरण समान जानना चाहिये और जिन जिन कर्म प्रकृतियों का उसी (एकेन्द्रिय के) भव में अथवा अन्य भव में उदय होता है उसके उस उस भव के योग्य बहुत सी प्रकृतियों का वेदन करते हुए उस उस प्रकृति का जघन्य प्रदेशोदय होता है । विशेषार्थ – पूर्वोक्त प्रकृतियों से शेष रही प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशोदय चक्षुदर्शनावरण के समान तब तक कहना चाहिये, जब तक कि वह एकेन्द्रिय रहता है । इसलिये जिन कर्मों का उसी एकेन्द्रिय भव में उदय होता है, उन कर्मों का उसी एकेन्द्रिय भव में जघन्य प्रदेशोदय जानना चाहिये । और जिन कर्मों का अर्थात् मनुष्यगति, द्वीन्द्रियजातिचतुष्क, आदि के पांच संस्थान, औदारिकअंगोपांग, वैक्रिय अंगोपांग, संहननषट्क, विहायोगतिद्विक, त्रस, सुभग, सुस्वर, दु:स्वर और आदेय इन प्रकृतियों का उस एकेन्द्रिय भव में उदय संभव नहीं है । अतः इनका एकेन्द्रिय भव से निकलकर उन उन कर्मों के उदय योग्य भवों में उत्पन्न हुए जीव के उस भव के योग्य उन उन बहुत सी प्रकृतियों का वेदन करने वाले के उन उन प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशोदय होता है। उस उस भव के योग्य बहुत सी प्रकृतियों का वेदन पर्याप्तक जीव के होता है । इसलिये सभी पर्याप्तियों से पर्याप्त जीव के उन उनका जघन्य प्रदेशोदय
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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