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________________ ३४२ ] [ कर्मप्रकृति गाथार्थ – नपुंसकवेद, तिर्यंच, स्थावर और नीचगोत्र का जघन्य प्रदेशोदय स्वामित्व मतिज्ञानावरण के समान जानना और निद्रानिद्रादि तीनों निद्राओं का भी इसी प्रकार समझना चाहिये। लेकिन विशेष - इन तीनों निद्राओं का इन्द्रिय पर्याप्त जीव के प्रथम समय में होता है। विशेषार्थ – वर्षवर अर्थात् नपुंसकवेद, तिर्यंचगति, स्थावर और नीचगोत्र का जघन्य प्रदेशोदय स्वामित्व मतिज्ञानावरण के समान जानना चाहिये। निद्रानिद्रादि तीनों प्रकृतियों का भी जघन्य प्रदेशादय स्वामित्व मतिज्ञानावरण के समान है। विशेष यह है कि इन्द्रियपर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के प्रथम समय में जानना चाहिये। क्योंकि उसके अनन्तर समय में उदीरणा संभव होने से जघन्य प्रदेशोदय का होना असंभव है। तथा – दसणमोहे तिविहे, उदीरणुदए उ आलिगं गंतुं। सतरसण्ह वि एवं, उवसमइत्ता गए देवे॥ २५॥ शब्दार्थ – दसणमोहेतिविहे – तीनों प्रकार के दर्शनमोह का, उदीरणुदए – उदीरणोदय, उ - की, आलिगं - आवलिका, गंतुं – जाने पर, सतरसण्ह – सत्रह का, वि – भी, एवं – इसी प्रकार, उवसमइत्ता – उपशमन करके, गए देवे – देवों में गए हुए। गाथार्थ – तीनों प्रकार के दर्शन मोह का जघन्य प्रदेशोदय उदीरणोदयावलिका के जाने पर होता है। इसी प्रकार सत्रह प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशोदय भी उनका उपशमन करके देवों में गये हुए जीव के होता है। विशेषार्थ – क्षपितकर्मांश औपशमिक सम्यग्दृष्टि के औपशमिक सम्यक्त्व से च्युत होते हुए अन्तरकरण में स्थित रह कर द्वितीयस्थिति से सम्यक्त्व आदि प्रकृतियों के दलिकों को आकर्षित करके अन्तरकरण की अंतिम आवलिका मात्र भाग में गोपुच्छाकार संस्थान रचता है, यथा - प्रथम समय में बहुत दलिकों को देता है, द्वितीय समय में उससे विशेषहीन और तृतीय समय में उससे विशेषहीन देता है। इस प्रकार चरम समय तक विशेषहीन विशेषहीन जानना चाहिये। इनके उदय को उदीरणोदय कहा जाता है। उस उदीरणोदय में आवलिकापर्यन्त जा कर आवलिका के चरम समय में सम्यक्त्व, मिश्र और मिथ्यात्व इन मोहनीयत्रिक का अपने अपने उदय से युक्त जीव के जघन्य प्रदेशोदय होता है तथा अनन्तानुबंधी को छोड़कर शेष बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य रति, भय और जुगुप्सा, इन सत्रह प्रकृतियों की उपशमना कर देवलोक में गये हुए जीव के इसी प्रकार से उदीरणोदय के चरम समय में इन सत्रह प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशोदय होता है। इन सत्रह प्रकृतियों का अन्तरकरण करके देवलोक में गया हुआ जीव प्रथम समय में ही द्वितीयस्थिति में से दलिकों को आकृष्ट करके उदय समय से लेकर गोपुच्छाकार से उनकी रचना करता है, यथा - उदय समय में बहुत दलिक देता है,
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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