SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 374
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४० ] [ कर्मप्रकृति गाथार्थ – जघन्य प्रदेशोदय स्वामित्व में क्षपितकर्मांश जीव ही प्रकृत है। कोई जघन्य स्थिति वाला देव होकर अन्तर्मुहूर्त आयु शेष रहने पर मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ और अति संक्लिष्ट परिणाम वाला होकर काल करके एकेन्द्रिय जीवों में गया। वहां उसके प्रथम समय में मतिश्रुतावरण, केवलद्विक, मनःपर्यय, चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन आवरणों का जघन्य प्रदेशोदय होता है। विशेषार्थ – 'जघन्य स्वामी' यह भावप्रधान निर्देश है। जिसका अर्थ है कि जघन्य प्रदेशोदय के स्वामित्व में क्षपितकर्मांश जीव का अधिकार है। इस प्रकार प्रदेशोदय स्वामित्व के कथन के लिये अधिकारी जीव का संकेत करने के बाद अब विस्तार से स्वामित्व का वर्णन करते हैं - कोई क्षपितकांश जीव दस हजार वर्ष की जघन्य स्थिति वाले देवों में उत्पन्न होने के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त बीतने पर सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ और वहां कुछ कम दस हजार वर्ष तक परिपालन करके अन्तर्मुहूर्त जीवन के शेष रहने पर मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ और अतिसंक्लिष्ट परिणामी हो कर वक्ष्यमाण कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति को बांधना प्रारम्भ किया। उस समय वह अन्तर्मुहूर्त काल तक प्रभूत दलिकों की उद्वर्तना करता है और पुनः संक्लिष्ट परिणामों से ही काल करके एकेन्द्रिय हुआ। तब उसके प्रथम समय में मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, के वलज्ञानावरण, के वलदर्शनावरण, मनःपर्यवज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण का जघन्य प्रदेशोदय होता है। यहां प्रायः सर्वदलिक उद्वर्तित किये गये हैं, इस कारण प्रथम समय में अल्प दलिक प्राप्त होते हैं तथा दूसरी बात यह है कि उत्कृष्ट संक्लेशयुक्त जीव के अनुभाग - उदीरणा अधिक होने से प्रदेशोदीरणा अल्प होती है और जहां अनुभाग - उदीरणा अधिक होती है वहां प्रदेशोदीरणा अल्प होती है। इसीलिये गाथा में मिथ्यात्वगत और अति संक्लिष्ट इत्यादि पद दिये हैं तथा – ओहीणसंजमाओ देवत्तगए गयस्स मिच्छत्तं। उक्कोसठिइबंधे विकड्डणा आलिगं गंतुं ॥ २२॥ शब्दार्थ – ओहीणसंजमाओ – संयम से अवधिलब्धि (प्राप्त कर), देवत्तगए – देव पर्याय में उत्पन्न हो कर, गयस्समिच्छत्तं – मिथ्यात्व में गये हुए के, उक्कोसठिइबंधे – उत्कृष्ट स्थिति बांधकर, विकड्डणा - विकर्षणा (उद्वर्तना), आलिगं - आवलिका काल, गंतुं - जाने पर। गाथार्थ – संयम से अवधिलब्धि प्राप्त कर, देव पर्याय में उत्पन्न हो कर मिथ्यात्व में गये हुए जीव के उत्कृष्ट स्थिति बांध कर बहुत से दलिकों की उद्वर्तना कर आवलिका काल जाने पर अवधिद्विक आवरण का जघन्य प्रदेशोदय होता है।
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy