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________________ उपशमनाकरण ] [ ३०१ किट्टियों में अनुभाग अनन्त गुणहीन होता है। इस प्रकार तब तक कहना चाहिये जब तक कि किट्टिकरणाद्धा का चरम समय प्राप्त होता है। अब प्रथम समय में की गई किट्टियों के परस्पर प्रदेश प्रमाण का निरूपण करते हैं - 'जहण्णगाई विसेसूणं त्ति' अर्थात् जघन्य प्रदेश किट्टि को आदि करके उससे क्रम से एक एक किट्टि के प्रति विशेषहीन विशेषहीन प्रदेशाग्र कहना चाहिये। जिसका यह भाव है कि - प्रथम समय में की गई किट्टियों में जो सबसे मंद अनुभाग वाली किट्टि है, उसके प्रदेशाग्र सबसे अधिक होते हैं । उससे अनन्तर अनन्त गुणित अनुभाग से अधिक दूसरी किट्टि में प्रदेशाग्र हीन होते हैं । उससे भी अनन्तर अनुभाग से अधिक तीसरी किट्टि में प्रदेशाग्र विशेषहीन होते हैं । इस प्रकार अनन्तर अनन्तर अनुभाग से अधिक किट्टियों में प्रदेशाग्र विशेषहीन, विशेषहीन तब तक कहना चाहिये, जब तक कि प्रथम समय में की गई किट्टियों के मध्य में सर्वोत्कृष्ट किट्टि प्राप्त होती है। इसी प्रकार सभी समयों में होने वाली प्रत्येक किट्टि के लिये समझ लेना चाहिये तथा - अणुभागोऽणंतगुणो, चाउम्मासाइ संखभागूणो। मोहे दिवसपुहुत्तं, किट्टिकरणाइसमयम्मि॥५१॥ शब्दार्थ – अणुभागो - अनुभाग, अणंतगुणो - अनंतगुणा, चाउम्मासाइ - चातुर्मासिक, संखभागूणो - संख्यात भागहीन, मोहे - मोहनीय के , दिवसपुहुत्तं - दिवसपृथक्त्व, किट्टिकरणाइसमयम्मि - किट्टिकरण के प्रथम समय में। गाथार्थ – किट्टियों का अनुभाग प्रतिसमय अनन्तगुणा होता है । मोहनीय कर्म के चातुर्मासिक स्थितिबंध से अन्य स्थितिबंध संख्यात भागहीन होते हुए किट्टिकरणाद्धा के प्रथम समय में दिवसपृथक्त्व प्रमाण स्थितिबंध होता है। . विशेषार्थ - प्रथम समय में की गई किट्टियों का अनुभाग उत्तरोत्तर अनंतगुणा जानना चाहिये, यथा – प्रथम समय में की गई किट्टियों के मध्य में जो सर्वमंद अनुभाग वाली किट्टि है, वह सब से अल्प अनुभाग वाली है। उससे दूसरी किट्टि अनंतगुणी अनुभाग वाली है, उससे भी तीसरी किट्टि अनंतगुणी अनुभाग वाली है । इस प्रकार तब तक कहना चाहिये, जब तक प्रथम समय में की गई किट्टियों के मध्य में सर्वोत्कृष्ट अनुभाग वाली किट्टि प्राप्त होती है। इसी प्रकार द्वितीय आदि समयों में की गई किट्टियों की प्ररूपणा करना चाहिये। ___ अब इन्हीं किट्टियों का परस्पर अल्पबहुत्व कहते हैं - प्रथम समय में की गई किट्टियों के मध्य में जो सर्वाधिक प्रदेश वाली किट्टि है, वह वक्ष्यमाण किट्टियों की अपेक्षा अल्प प्रदेश वाली है,
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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