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________________ उपशमनाकरण ] [ २९१ वेद्यमान किसी एक प्रकृति की प्रथम स्थिति उदय काल के समान जानना चाहिये। विशेषार्थ – वीर्यान्तराय कर्म के देशघाति अनुभाग बंध के पश्चात संख्यात सहस्रों स्थितिबंधों के व्यतीत होने पर संयमघातिकर्मों का अर्थात् अनंतानुबंधी कषायों को छोड़ कर शेष प्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क आदि बारह कषाय और नौ नोकषायों इन इक्कीस प्रकृतियों का अन्तरकरण करता है । उस समय चारों संज्वलन कषायों में से वेद्यमान किसी एक संज्वलन कषाय और तीन वेदों में से वेद्यमान किसी एक वेद की प्रथम स्थिति अपने उदयकाल प्रमाण होती है। अन्य ग्यारह कषायों और आठ नो कषायों की प्रथम स्थिति आवलिका प्रमाण होती है। चारों संज्वलनों और तीनों वेदों के स्वोदय काल का प्रमाण इस प्रकार है – स्रीवेद और नपुंसक वेद का उदय काल सबसे अल्प है। किन्तु स्वस्थान में परस्पर समान है। उससे पुरुषवेद का उदय काल संख्यातगुणा, उससे भी संज्वलन क्रोध का विशेषाधिक, उससे भी संज्वलन मान का विशेषाधिक, उससे भी संज्वलन माया का विशेषाधिक है और उससे भी संज्वलन लोभ का उदयकाल विशेषाधिक है। कहा भी है - थी अपुमोदयकाला संखेजगुणा उ पुरिसवेदस्स। तस्स वि विसेस अहिओ कोहे तत्तो वि जह कमसो॥ अर्थात् स्रीवेद, नपुंसकवेद और पुरुषवेद का काल संख्यातगुणा है। उससे क्रोध का काल विशेषाधिक है और उससे आगे यथाक्रम से विशेष-विशेष अधिक होता है। इनमें से संज्वलन क्रोध के साथ उपशमश्रेणि को प्राप्त हुए जीव के जब तक अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण क्रोध का उपशम नहीं होता है, तब तक संज्वलन क्रोध का उदय रहता है। संज्वलन मान के साथ उपशमश्रेणि को प्राप्त हुए जीव के जब तक अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण मान का उपशम नहीं होता है, तब तक संज्वलन मान का उदय रहता है। संज्वलन माया के साथ उपशमश्रेणि को प्राप्त हुए जीव के जब तक अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण माया का उपशम नहीं होता है, तब तक संज्वलन माया का उदय रहता है और संज्वलन लोभ के साथ उपशमश्रेणी को प्राप्त हुए जीव के जब तक अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण लोभ का उपशम नहीं होता है तब तक बादर संज्वलन लोभ का उदय रहता है, उसके आगे सूक्ष्म लोभ के उदय का काल होता है। इस प्रकार उपरितन भाग की अपेक्षा अन्तरकरण समान स्थिति वाला है और अधोभाग की अपेक्षा उक्त रीति से विषम स्थिति वाला है। जितने काल से स्थितिखंड को घातित करता है अथवा अन्य स्थितिबंध को करता है, उतने काल के द्वारा अन्तरकरण भी करता है। तीनों को ही एक साथ
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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