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________________ २८० ] [ कर्मप्रकृति अर्थात् तीर्थंकरों के समय में उत्पन्न हुआ मनुष्य ही होता है। (ऋषभ जिन के विचरण काल से ले कर जम्बूस्वामी के केवलोत्पत्ति लाभ तक का समय जिनकाल जानना चाहिये) तथा यह आठ वर्ष की अवस्था से ऊपर वर्तमान और वज्रऋषभनाराच संहनन वाला होता है। दर्शनमोहनीय की क्षपणा भी उसी प्रकार से कहना चाहिये, जिस तरह से पहले अनन्तानुबंधी कषायों की विसंयोजना का कथन किया गया है। वहां पर यद्यपि सामान्य से ही कथन किया गया है, लेकिन यहां पर कुछ विशेष रूप से कथन करते हैं - यथाप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृतितकरण ये तीनों ही करण क्षपण के लिये भी किये जाते हैं, जिनका विधान पहले के समान ही कहना चाहिये। लेकिन इतना विशेष है कि केवल अपूर्वकरण के प्रथम समय में, उदय को प्राप्त नहीं हुए मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व के दलिक गुणसंक्रमण के द्वारा सम्यक्त्वमोहनीय में प्रक्षेपण करता है। इन दोनों ही प्रकृतियों का उद्वलना संक्रम भी इस प्रकार आरंभ करते हैं – प्रथम स्थिति खंड वृहत्तर उद्वलित करता है, उसके पश्चात् द्वितीय खंड विशेषहीन, उससे भी तृतीय खंड विशेषहीन उद्वलित करता है। इस प्रकार अपूर्वकरण के चरम समय तक कहना चाहिये। अपूर्वकरण के प्रथम समय में जो स्थितिसत्व होता है, वह उसी के चरम समय में संख्यात गुणहीन हो जाता है। तत्पश्चात् वह अनिवृत्तिकरण में प्रवेश करता है। यहां पर भी स्थितिघात आदि सभी कार्यों को तथैव करता है। अनिवृत्तिकरण के प्रथम समय में दर्शनमोहनीय की तीनों ही प्रकृतियों की देशउपशमना, निधत्ति और निकाचना विच्छिन्न हो जाती है और दर्शनमोहनीय त्रिक का स्थितिसत्व अनिवृत्तिकरण के प्रथम समय से ले कर स्थितिघात आदि के द्वारा घात किया जाता हुआ सहस्रों स्थितिखंडों के चले जाने पर असंज्ञी पंचेन्द्रिय के स्थितिसत्व के समान हो जाता है। तत्पश्चात् स्थितिखंड सहस्रपृथक्त्व जाने पर चतुरिन्द्रिय के स्थितिसत्व के समान हो जाता है । तत्पश्चात् पुनः उतने ही स्थितिखंडों के जाने पर त्रीन्द्रिय के स्थितिसत्व के समान हो जाता है। तत्पश्चात् पुनः उतने ही स्थितिखंडों के जाने पर द्वीन्द्रिय के स्थितिसत्व के समान हो जाता है। तत्पश्चात् पुनः उतने ही स्थितिखंडों के जाने पर एकेन्द्रिय के स्थितिसत्व के समान हो जाता है और तत्पश्चात् भी उतने ही स्थितिखंडों के जाने पर स्थितिसत्व पल्योपम मात्र प्रमाण वाला हो जाता है तब एक संख्यातवां भाग शेष छोड़ कर तीनों दर्शनमोहनीयों का शेष समस्त स्थितिसत्व विनष्ट हो जाता है। तत्पश्चात् उस पूर्व उक्त संख्यातवें भाग के भी एक संख्यातवें भाग को छोड़कर शेष संख्यात बहुभागों का विनाश करता १. यह कथन चूर्णिकार के मत से जानना चाहिये। किन्तु पंचसंग्रह के मतानुसार पल्योपम का असंख्यातवां भाग प्रमाण है। तथा- ठितिखंड सहस्साई एक्केक्के अन्तरम्मि गच्छन्ति। पलिओवमसंखंसे दंसणसंते तओ जाए॥
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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