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________________ २७६ ] [ कर्मप्रकृति श्रुत्वाचानुमनुते, न च प्रतिषेधति तदा प्रतिश्रवणानुमतिः। ___३. जब सावध आरंभ में प्रवृत्त पुत्रादिकों में केवल ममत्व मात्र से युक्त रहता है, अन्य कुछ भी पाप की बात न सुनता है और न प्रशंसा करता है, तब संवासानुमति होती है - यदा पुनः सावद्यारंभ प्रवृत्तेषु पुत्रादिषु केवलं ममत्वमात्र युक्तो भवति नान्यत् किंचित् प्रतिशृणोति श्लाघते वा तदा संवासानुमतिः। उक्त तीनों अनुमतियों में से जो केवल संवासानुमति को ही सेवन करता है, वह उत्कृष्ट देशविरत है और वह अन्य सर्वश्रावकों के गुणों में उत्तम है। जो संवासानुमति से भी विरत हो जाता है, वह यति (सर्वविरत) कहलाता है। प्रश्न – देशविरति और सर्वविरति काल का लाभ कैसे होता है ? उत्तर – 'दोण्ह वि' इत्यादि अर्थात् देशविरत और सर्वविरति इन दोनों की ही प्राप्ति में यथाप्रवृत्तकरण और अपूर्वकरण नामक दो करण होते हैं, तीसरा अनिवृत्तिकरण नहीं होता है। प्रश्न – इसका कारण क्या है ? उत्तर – इसका कारण यह है कि यहां करणकाल से भी पहले अन्तर्मुहूर्त तक प्रतिसमय अनन्तगुणी वृद्धि वाली विशुद्धि से प्रवर्धमान जीव अशुभ कर्मों के अनुभाग को द्विस्थानक करता है। यह यथाप्रवृत्तकरण के प्रारंभ के पूर्व तक कहना चाहिये। और वह यथाप्रवृत्तकरण भी इसी प्रकार जानना चाहिये। तत्पश्चात् अपूर्वकरण करता है। विशेष यह है कि यहां गुणश्रेणी नहीं होती है। अपूर्वकाल के समाप्त हो जाने पर अनन्तर समय में वह नियम से देशविरति को या सर्वविरति को प्राप्त कर लेता है । इसलिये वह तीसरे अनिवृत्तिकरण को नहीं करता है । इसके साथ ही यहां यह भी समझ लेना चाहिये कि पूर्वोक्त दोनों करणों को अविरत करता है तो देशविरति अथवा सर्वविरति को प्राप्त करता है और यदि देशविरत दोनों करणों को करता है तो सर्वविरति को ही प्राप्त करता है। तदनन्तर 'पच्छा' इत्यादि अर्थात् दोनों करणों के बीत जाने पर बाद में देशविरति या सर्वविरति को प्राप्त होता हुआ उदयावलिका के ऊपर गुणश्रेणी की रचना करता है और उसे उतना ही अर्थात् अन्तर्मुहूर्त प्रमाण प्रतिसमय दलिकरचना का आश्रय लेकर असंख्यातगुणी वृद्धि वाली रचता है तथा देशविरत अथवा सर्वविरत जीव अपनी देशविरति या सर्वविरति को प्राप्त करने के अनन्तर अन्तर्मुहूर्त काल तक अवश्य ही प्रवर्धमान परिणाम वाला होता है। उसके ऊपर कोई नियम नहीं है। कोई प्रवर्धमान परिणाम वाला होता है, कोई स्वभावस्थ या हीन परिणाम वाला हो जाता है। इनमें स्वभावस्थ या हीन परिणाम वाले देशविरत या सर्वविरत में स्थितिघात और रसघात नहीं होते हैं। तथा –
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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