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________________ उदीरणाकरण ] [ २४९ क्षीणकषाय जीव के समयाधिक आवलिका प्रमाण स्थिति के शेष रह जाने पर होती है। निद्रा और प्रचला की उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा उपशांत कषाय के होती है। सत्यानर्धित्रिक की उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा अप्रमत्त भाव के अभिमुख प्रमत्त संयत के होती है। मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी कषायों की उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा अनन्तर समय में संयम सहित सम्यक्त्व को प्राप्त करने के इच्छुक मिथ्यादृष्टि के चरम समय में होती है। सम्यग्मिथ्यात्व की उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा सम्यक्त्व प्राप्ति के उपान्त्य समय में होती है। अपूत्याख्यानावरण कषायों की उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा अनन्तर समय में देशविरति को प्राप्त करने वाले अविरतसम्यग्दृष्टि के होती है। प्रत्याख्यानावरण कषायों की उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा अनन्तर समय में संयम को प्राप्त करने वाले देशविरत के होती है। संज्वलन क्रोध, मान और माया की उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा उस उस कषाय के वेदक जीव के अपने-अपने उदय के अंतिम समय में होती है। तीनों ही वेदों की और संज्वलन लोभ की उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा उस उसके वेदक जीव के समयाधिक आवलि के चरम समय में होती है। हास्यादिषट्क की उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा अपूर्वकरण गुणस्थान के चरम समय में वर्तमान क्षपक के होती है। उक्त सभी प्रकृतियों की उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा गुणितकांश जीव के जानना चाहिये। तथा वेयणियाणं गहिहिई सेकाले अप्पमायमिय विरओ। संघयणपणग तणुदुग उज्जोया अप्पमत्तस्स॥ ८३॥ शब्दार्थ – वेयणियाणं - वेदनीयद्विक की, गहिहिई - ग्रहण करेगा, सेकाले - अनन्तर समय में, अप्पमायं - अप्रमत्त भाव को, इय – ऐसा, विरओ – विरत, संघयणपणग - पांच संहनन, तणुदुग – शरीरद्विक, उज्जोया – उद्योत की, अप्पमत्तस्स – अप्रमत्त के। . गाथार्थ – अनन्तर समय में अप्रमत्त भाव को ग्रहण करेगा, ऐसा प्रमत्तसंयत वेदनीयद्विक की उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है तथा अप्रमत्त संयत के पांच संहनन शरीरद्विक और उद्योत की उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा होती है। विशेषार्थ – जो प्रमत्त अनन्तर समय में अप्रमाद भाव को ग्रहण करेगा अर्थात् अप्रमत्त संयत होगा, ऐसा वह प्रमत्तविरत साता, असाता रूप दोनों वेदनीय कर्मों की उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है क्योंकि वह सर्व विशुद्ध है तथा अप्रमत्तसंयत को आदि के संहनन को छोड़कर शेष संहनन पंचक वैक्रियसप्तक, आहारकसप्तक और उद्योत नामकर्म की उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा होती है। तथा –
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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