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________________ २२४ ] [ कर्मप्रकृति असंख्यातवें भाग, थियाईणं - स्त्रीवेद आदि की। गाथार्थ – देशविरत और विरत जीवों के सुभग, आदेय, यश:कीर्ति और उच्चगोत्र की अनुभाग उदीरणा तथा स्त्रीवेद आदि नौ नोकषायों की अनुभाग उदीरणा पूर्वानुपूर्वी का असंख्यातवां भाग गुणपरिणाम प्रत्ययिक है। विशेषार्थ – देशविरतों और संयतों के सुभग, आदेय, यश:कीर्ति और उच्चगोत्र इन चार प्रकृतियों की अनुभाग उदीरणा गुणपरिणाम कृत होती है। वह इस प्रकार जानना चाहिये कि - सुभग आदि प्रकृतियों के प्रतिपक्षभूत, दुर्भग आदि प्रकृतियों के उदय से युक्त भी जो जीव देशविरति अथवा सर्वविरति को प्राप्त होता है, उसके देशविरत आदि गुणों के प्रभाव से सुभग आदि प्रकृतियों की ही उदय पूर्वक उदीरणा प्रवृत्त होती है। स्त्रीवेद आदि नौ नोकषायों का पूर्वानुपूर्वी से असंख्यातवां भाग देशविरत और सर्वविरत प्रत्येक के गुण परिणाम प्रत्यय से उदीरणा योग्य जानना चाहिये। इसका तात्पर्य यह है कि स्त्रीवेद आदि नोकषायों के अति जघन्य अनुभाग स्पर्धक से ले कर क्रम से असंख्यातवां भाग देशविरतादि के गुणपरिणामप्रत्यय से उदीरणा के योग्य होता है, इससे परे अनुभाग की उदीरणा नहीं होती है। तथा - तित्थयरं घाईणि य परिणाम पच्चयाणि सेसाओ। भवपच्चइया पुव्वुत्ता वि य पुव्वुत्त सेसाणं॥५३॥ शब्दार्थ – तित्थयरं – तीर्थंकर नाम, घाईणि - घाति प्रकृतियां, य - और, परिणाम पच्चयाणि – परिणामप्रत्ययिक, सेसाओ - शेष, भवपच्चइया - भवप्रत्ययिक, पुव्वुत्तावि – पूर्वोक्त भी, य - और, पुव्वुत्त सेसाणं - पूर्वोक्त जीवों से शेष। . गाथार्थ – तीर्थंकरनाम और घाति प्रकृतियां परिणामप्रत्ययिक हैं तथा शेष प्रकृतियां और पूर्वोक्त प्रकृतियां भी पूर्वोक्त जीवों के सिवाय शेष जीवों के भवप्रत्यय वाली हैं। विशेषार्थ – तीर्थंकरनाम और घाति कर्म अर्थात् पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, नोकषायों को छोड़ कर शेष मोहनीय प्रकृतियां और पांच प्रकार का अन्तराय, कुल मिला कर उनतालीस प्रकृतियां अनुभाग उदीरणा की अपेक्षा मनुष्यों और तिर्यंचों के परिणामप्रत्यय वाली हैं । इसका अभिप्राय है कि इन प्रकृतियों के अनुभाग की उदीरणा तिर्यंच और मनुष्यों के परिणाम प्रत्यय से होती है। अन्य रूप से स्थित स्वरूप का अन्य रूप कर देना परिणाम कहलाता है - परिणामो ह्यन्यथाभाव नयनं। तिर्यंच और मनुष्य गुणप्रत्यय के द्वारा अन्य प्रकार से बंधे हुय कर्मदलिकों को अन्य प्रकार से परिणत कर उनकी उदीरणा करते हैं।
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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