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________________ [ कर्मप्रकृति इस प्रकार मूलप्रकृति विषयक सादि अनादि प्ररूपणा करके अब उत्तरप्रकृति विषयक सादिअनादि प्ररूपणा करते हैं २०० ] - मिच्छत्तस्स चउद्धा, अजहण्णा धुवउदीरणाणतिहा । सेसविगप्पा दुविहा, सव्वविगप्पा य सेसाणं ॥ ३१॥ शब्दार्थ - मिच्छत्तस्स - मिथ्यात्व की, चउद्धा - चार प्रकार की, अजहण्णा अजघन्य, धुवउदीरणाण - ध्रुव उदीरणा वाली प्रकृतियों की, तिहा - तीन प्रकार की, सेसविगप्पाशेष विकल्प, दुविहा- दो प्रकार के, सव्वविगप्पा सर्व विकल्प, य - और, सेसाणं - शेष प्रकृतियों के । — - गाथार्थ मिथ्यात्व कर्म की अजघन्य स्थिति उदीरणां चार प्रकार की है। ध्रुव उदीरणा वाली प्रकृतियों की अजघन्य स्थिति उदीरणा तीन प्रकार की है, शेष विकल्प दो प्रकार के हैं और इनके अतिरिक्त शेष सभी कर्मों के सर्वविकल्प दो प्रकार के होते 1 विशेषार्थ - मिथ्यात्व की अजघन्य स्थिति उदीरणा चार प्रकार की होती है, यथा- सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव । उनमें प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करने वाले मिथ्यादृष्टि के मिथ्यात्व की प्रथम स्थिति में समयाधिक आवलिका शेष रह जाने पर जघन्य स्थिति - उदीरणा होती है । अत: वह सादि और अध्रुव है । पुनः सम्यक्त्व से गिरने पर अजघन्य स्थिति - उदीरणा होती हैं । अत: वह सादि है और इस स्थान को अप्राप्त जीव के अनादि है। ध्रुव और अध्रुव भंग क्रमशः अभव्य और भव्य की अपेक्षा से है। पांच प्रकार का ज्ञानावरण, चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल दर्शनावरण, पांच प्रकार का अन्तराय, तैजससप्तक, वर्णादि बीस, स्थिर, अस्थिर, शुभ -अशुभ, अगुरुलघु और निर्माण नाम, इन ध्रुव उदीरणा वाली सैंतालीस प्रकृतियों की स्थिति - उदीरणा तीन प्रकार की होती है । यथा अनादि, ध्रुव और अध्रुव । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है ज्ञानावरणपंचक, अन्तरायपंचक, चक्षु, अचक्षु अवधि और केवल दर्शनावरण इन चौदह प्रकृतियों की जघन्य स्थिति - उदीरणा क्षीणकषाय के स्वगुणस्थान के समयाधिक आवलिका शेष में वर्तमान क्षपक के होती है, जो सादि और अध्रुव है । उसके सिवाय शेष सभी अनादि हैं। क्योंकि सदैव पायी जाती हैं । ध्रुव और अध्रुव पूर्ववत् जानना चाहिये । अर्थात् अभव्य की अपेक्षा ध्रुव और भव्य की अपेक्षा अध्रुव है। 1 उक्त ज्ञानावरणपंचक आदि चौदह प्रकृतियों से शेष रही, तैजससप्तकं आदि नामकर्म की
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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