SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 232
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९८ ] [ कर्मप्रकृति आवलिकाहीन उत्कृष्ट स्थिति के जितने समय होते हैं, उतने उदीरणा के भेद होते हैं । वे इस प्रकार हैंकिसी प्रकृति की उदयावलिका से उपरिवर्ती एक समय प्रमाण स्थिति उदीरणा के योग्य होती है। क्योंकि उस प्रकृति की उतनी ही स्थिति शेष रही हुई है। इसी प्रकार किसी प्रकृति की दो समय मात्र किसी की तीन समय मात्र स्थिति उदीरणा के योग्य होती है। इस प्रकार तब तक कहना चाहिये जब तक कि उस प्रकृति की दो आवलिका से हीन सम्पूर्ण उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होती है। इस कथन के अभिप्राय सूचक गाथा गत पदों का अर्थ इस प्रकार है – 'सेचीका' स्थितियों से अर्थात् उदीरणा प्रायोग्य स्थितियों से जितनी आवलिकाद्विक हीन उत्कृष्ट स्थिति के समय प्रमाण स्थितियां उदीरणा प्रयोग से आकृष्ट करके सम्प्राप्त उदय में दी जाती हैं, उतने भेद प्रमाण अर्थात् उतने भेद वाली वह उदीरणा होती है। स्थिति - उदीरणा की सादि-अनादि प्ररूपणा ____ अब स्थिति उदीरणा की सादि-अनादि प्ररूपणा करते हैं – वह दो प्रकार की है। १. मूल प्रकृति विषयक और २. उत्तर प्रकृति विषयक। इनमें से पहले मूल प्रकृति विषयक सादि-अनादि प्ररूपणा करते हैं - मूलठिई अजहन्ना, मोहस्स चउव्विहा तिहा सेसा। वेयणियाऊण दुहा, सेसविगप्पा उ सव्वासिं॥३०॥ शब्दार्थ - मूल - मूलकर्म, ठिई – स्थिति, अजहन्ना - अजघन्य, मोहस्स – मोहनीय की, चउव्विहा - चार प्रकार की, तिहा – तीन प्रकार की, सेसा – शेष कर्मों की, वेयणियाऊणवेदनीय और आयु की, दुहा - दो प्रकार की, सेसविगप्पा – शेष विकल्प, उ - और, सव्वासिं - सर्व कर्मों के। गाथार्थ – मूल कर्मों में मोहनीय कर्म की अजघन्य स्थितिउदीरणा चार प्रकार की और शेष कर्मों की तीन प्रकार की है । वेदनीय और आयु कर्म की अजघन्य उदीरणा दो प्रकार की है तथा सभी कर्मों के शेष विकल्प दो प्रकार के हैं। विशेषार्थ - मूलठिई इस गाथा स्थित पद में प्राकृत भाषा व्याकरण के नियमानुसार मूल और ठिई शब्द की षष्ठी विभक्ति का लोप हुआ जानना चाहिये। इसलिये यह अर्थ होता है कि मूल प्रकृतियों में से मोहनीय कर्म की स्थिति की अजघन्य उदीरणा चार प्रकार की होती है, यथा - सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव। मोहनीय कर्म की जघन्य स्थिति उदीरणा सूक्ष्मसंपरायक्षपक के अपने गुणस्थान के समयाधिक आवलि शेष में वर्तमान जीव के होती है। उससे अन्यत्र सर्वत्र ही अजघन्य
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy