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[ कर्मप्रकृति
(तैजसकायिक और वायुकायिक) जीवों को छोड़कर शेष पर्याप्तक नामकर्म के उदय में वर्तमान जीव यशःकीर्ति नामकर्म के उदीरक होते हैं तथा –
गोउत्तमस्स देवा, नरा य वइणो चउण्हमियरासिं।
तव्वइरित्ता तित्थ-गरस्स उ सव्वण्णुयाए भवे॥ १७॥ शब्दार्थ – गोउत्तमस्स - उत्तमगोत्र (उच्च गोत्र) के, देवा - देव, नरा - मनुष्य, य - और, वइणो - व्रती, चउण्हमियरासिं – इतर चार के, तव्वइरित्ता – पूर्वोक्त से इतर, तित्थगरस्सतीर्थंकर नाम के, उ – और, सव्वण्णुयाए भवे – सर्वज्ञपने में।
गाथार्थ – उत्तम गोत्र (उच्च गोत्र) के उदीरक देव और उच्च कुलोत्पन्न व्रती मनुष्य होते हैं तथा इनसे इतर चारों प्रकृतियों (दुर्भग, अनादेय, अयश:कीर्ति और नीचगोत्र) के उदीरक पूर्वोक्त जीवों से भिन्न जानना चाहिये। तीर्थंकर नाम की उदीरणा सर्वज्ञपने में होती है।
विशेषार्थ – सभी देव और मनुष्यों में से कई उच्च कुल में उत्पन्न मनुष्य तथा नीच गोत्र व्रती अर्थात् पंचमहाव्रतों से अलकृत मनुष्य उच्चगोत्र के उदीरक होते हैं। तथा पूर्वोक्त चारों प्रकृतियों से इतर दुर्भग, अनादेय, अयश:कीर्ति और नीचगोत्र के उदीरक पूर्वोक्त जीवों से व्यतिरिक्त जीव जानना चाहिये। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है -
दुर्भग और 'अनादेय के उदीरक एकेन्द्रिय, सम्मूर्छिम तिर्यंच मनुष्य और नारकी होते हैं, जो कि अपर्याप्तक नामकर्म के उदय में वर्तमान हैं। सभी अपर्याप्तक नामकर्म के उदय में वर्तमान सभी सूक्ष्म जीव सभी नैरयिक और सभी सूक्ष्म त्रस जीव अयशकीर्ति नामकर्म के उदीरक होते हैं। नीचगोत्र के उदीरक सभी नारकी, सभी तिर्यंच और मनुष्य विशिष्ट कुल में उत्पन्न एवं व्रती को छोड़कर शेष सभी उदीरक होते हैं।
तीर्थंकर नामकर्म की उदीरणा सर्वज्ञता प्राप्त होने पर ही होती है।, अन्य समय में नहीं। क्योंकि अन्य समय में तीर्थंकर प्रकृति के उदय का अभाव रहता है। तथा –
इंदियपजत्तीए, दुसमयपज्जत्तगा उ पाउग्गा।
निद्दापयलाणं खीणरागखवगे परिच्चज॥ १८॥ शब्दार्थ – इंदियपजत्तीए - इन्द्रिय पर्याप्ति से, दुसमय - दूसरे समय से, पजत्तगाउ – पर्याप्तक जीव, पाउग्गा - प्रायोग्य, निद्दापयलाणं – निद्रा और प्रचला के, खीणरागखवगे - क्षीणरागी और क्षपक को, परिच्चज - छोड़ कर।