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________________ १४६ ] [ कर्मप्रकृति प्रथम स्पर्धक अपवर्तित नहीं होता है, दूसरा भी नहीं तीसरा भी नहीं होता है । इस प्रकार तब तक कहना चाहिये जब तक कि उदयावलिका प्रमाण स्थितिगत स्पर्धक प्राप्त होते हैं । किन्तु उनसे उपरितन स्पर्धक अपवर्तित किये जाते हैं, उनमें से जब उदयावलिका से ऊपर समय मात्र स्थितिगत स्पर्धकों को अपवर्तित किया जाता है तब एक समय कम आवलिका के दो त्रिभाग गत स्पर्धकों में निक्षिप्त किया जाता है और जब उदयावलिका से ऊपर द्वितीय समय मात्र स्थिति गत स्पर्धकों को अपवर्तित किया जाता है तब पूर्वोक्त अतीत्थापना एक समय कम आवलिका के दो त्रिभाग प्रमाण और समयमात्र स्थितिगत स्पर्धकों से अधिक जानना चाहिये । किन्तु निक्षेप उतना ही रहता है। इस प्रकार एक एक समय की वृद्धि से अतीत्थापना तब तक बढ़ाना चाहिये जब जक कि एक आवलि पूरी होती है। उससे आगे अतीत्थापना सर्वत्र ही तावत् प्रमाण ही रहती है, किन्तु निक्षेप बढ़ता है ।" यह कथन निर्व्याघात - अपवर्तना की अपेक्षा समझना चाहिये । व्याघातभावी अनुभाग – अपवर्तना का स्पष्टीकरण यह है कि अतीत्थापना समय मात्र स्थितिगत स्पर्धकों से न्यून अनुभाग कंडक प्रमाण जानना चाहिये और कंडक का प्रमाण एवं एक समय की न्यूनता को जैसा पहले स्थिति - अपवर्तना में कहा है, उसी प्रकार यहां पर भी अर्थात् अनुभागअपवर्तना में भी समझना चाहिये । अब (अनुभाग- अपवर्तना में) अल्पबहुत्व का कथन करते हैं १. जघन्य निक्षेप सबसे कम है । २. उससे जघन्य अतीत्थापना अनन्तगुणी है । ३. उससे व्याघातदशा में अतीत्थापना अनन्तगुणी है । ४. उससे उत्कृष्ट अनुभागकंडक विशेषाधिक है । क्योंकि वह एक समयगत स्पर्धकों की अपेक्षा अतीत्थापना से अधिक है । ५. उससे उत्कृष्ट निक्षेप विशेषाधिक है । ६. उससे भी सम्पूर्ण अनुभाग विशेषाधिक है। उक्त अल्पबहुत्व का कारण सहित स्पष्टीकरण इस प्रकार है। - १. एक समयाधिक १ / ३ आवलिका गत स्पर्धक प्रमाण होने से जघन्य निक्षेप सर्वस्तोक है । २. समयहीन २/३ आवलिकागत स्पर्धक प्रमाण होने के कारण उससे जघन्य अतीत्थापना अनन्तगुणी है । ३. उससे व्याघातभावी अतीत्थापना एक समय हीन अनुभागकंडक प्रमाण होने से अनन्तगुणी है । ४. उससे उत्कृष्ट अनुभागकंडक विशेषाधिक है । ५. समयाधिक अतीत्थापनावलिका और बंधावलिका रहित शेष सर्व स्थिति गत स्पर्धक प्रमाण होने से उत्कृष्ट निक्षेप पूर्व से विशेषाधिक है । ६. उससे भी सर्वानुभाग समयाधिक अतीत्थापनावलिका गत अनन्त स्पर्धक सहित होने से विशेषाधिक है । १. इसका प्रारूप परिशिष्ट में देखिये ।
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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