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उद्वर्तना - अपवर्तनाकरण ]
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सभी स्थितिस्थान डायस्थिति कहलाते हैं। वह डायस्थिति कुछ कम कंडक के उत्कृष्ट प्रमाण होती है। किन्तु पंचसंग्रह में टीकाकार ने इस प्रकार व्याख्या की है -
वह डायस्थिति उत्कृष्ट से कुछ कम कर्मस्थिति प्रमाण होती है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है – संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव अन्तः कोडाकोडी प्रमाण स्थितिबंध को करके पुनः उत्कृष्ट संक्लेश के वश उत्कृष्ट स्थिति को करता है वह डायस्थिति कुछ कम कर्मस्थिति प्रमाण होती है। यही कंडक का उत्कृष्ट प्रमाण है। यह उत्कृष्ट कंडक एक समय से भी न्यून हो जाता है तो भी कंडक कहा जाता है। इसी प्रकार दो समय से हीन, तीन समय से हीन तब तक कहना चाहिये जब तक पल्योपम का असंख्यातवां भाग मात्र प्रमाण प्राप्त होता है। यह जघन्य कंडक है और यह एक समय कम कंडक व्याघात में जघन्य अतीत्थापना का प्रमाण है।'
अब अल्पबहुत्व' का कथन करते हैं -
१. अपवर्तना में जघन्य निक्षेप सबसे अल्प है। क्योंकि उसका प्रमाण समयाधिक आवलिका का त्रिभाग मात्र है अर्थात् एक समय अधिक एक त्रिभाग आवलिका प्रमाण है।
२. उससे भी जघन्य अतीत्थापना तीन समय कम दुगुनी होती है। तीन समय कम दुगुनी कैसी होती है ? तो इसका उत्तर यह है कि व्याघात के बिना जघन्य अतीत्थापना एक समय कम आवलिका के दो त्रिभाग प्रमाण होती है। असत् कल्पना से इसका स्पष्टीकरण इस तरह समझना चाहिये कि यदि आवलिका का प्रमाण नौ समय माना जाये तो अतीत्थापना एक समय कम दो त्रिभाग पांच समय प्रमाण होगी। जघन्य निक्षेप भी समयाधिक आवलिका के त्रिभाग रूप है। अर्थात् असत्कल्पना से वह चार समय प्रमाण है। क्योंकि उसे दुगुना करके तीन समय (आवलिका का एक त्रिभाग) कम करने पर पांच समय प्रमाण ही प्राप्त होता है। इसलिये अपवर्तना में जघन्य अतीत्थापना तीन समय कम दुगुनी कही है।
३. उससे भी निर्व्याघात भावी अतीत्थापना विशेषाधिक है। क्योंकि वह परिपूर्ण आवलिका प्रमाण होती है।
४. उससे भी व्याघात अतीत्थापना असंख्यातगुणी है। क्योंकि वह कुछ कम डायस्थिति प्रमाण है।
१. व्याघातभावी स्थिति अपवर्तना में दलिक निक्षेप का प्रारूप परिशिष्ट में देखिये।
२. इस अल्पबहुत्व में व्याघात-अपवर्तना संबंधी जघन्य निक्षेप, उत्कृष्ट निक्षेप और जघन्य अतीत्थापना इन तीन का अल्पबहुत्व नहीं बताया है।