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________________ संक्रमकरण ] [ १२१ यहां पर (जघन्य प्रदेशसंक्रम के स्वामित्व का विचार करने के प्रसंग में) प्रायः इसी क्षपितकांश जीव का अधिकार है और कितनी ही प्रकृतियों को अधिकृत कर जो विशेषता है, इसका यथास्थान उल्लेख किया जा रहा है। ___ इस प्रकार क्षपितकर्मांश का स्वरूप जानना चाहिये। अब जघन्य प्रदेशसंक्रम स्वामित्व का कथन प्रारम्भ करते हैं - आवरणसत्तगम्मि उ, सहोहिणा तं विणोहिजुयलम्मि। निदादुगंतराइय हासचउक्के य बंधते॥९७॥ शब्दार्थ – आवरणसत्तगम्मि – आवरणसप्तक का, उ – और, सहोहिणा – अवधिज्ञान सहित, तं - उस, विणोहि – अवधि रहित, जुयलम्मि – द्विक का, (अवधिज्ञान का), निदादुगंतराइयनिद्राद्विक और अंतरायपंचक, हासचउक्के – हास्यचतुष्क का, य - और, बंधते – बंधविच्छेद के समय। गाथार्थ – अवधिज्ञान सहित जीव अवधिद्विक से रहित शेष आवरणसप्तक के बंधविच्छेद के समय तथा अवधिज्ञान रहित जीव अवधिद्विक के बंधविच्छेद के समय जघन्य प्रदेशसंक्रम करता है तथा निद्राद्विक, अंतरायपंचक और हास्यचतुष्क का जघन्य प्रदेशसंक्रम अपने अपने बंधविच्छेद के समय होता है। विशेषार्थ – अवधिज्ञान के साथ जो जीव वर्तमान है, उसके अवधिज्ञानावरण रहित चार ज्ञानावरण कर्म और अवधिदर्शनावरण रहित शेष तीन दर्शनावरण कर्म कुल मिलाकर सात कर्म प्रकृतियों का अपने अपने बंधविच्छेद के समय यथाप्रवृत्तसंक्रम के द्वारा जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है। क्योंकि अवधिज्ञान को उत्पन्न करता हुआ जीव बहुत से अवधिज्ञानावरण कर्म पुद्गलों की निर्जरा करता है। इसलिये इन प्रकृतियों के अपने अपने बंधविच्छेद के समय अल्प कर्म पुद्गल ही पाये जाते हैं। यहां पर भी जघन्य प्रदेशसंक्रम का अधिकार है, इसलिये अवधिज्ञान के साथ जो रहता है, ऐसा कहा है। उस अवधि के बिना अर्थात् अवधिज्ञान और अवधिदर्शन से सहित जो जीव है उसके अवधि युगल अर्थात् अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरण रूप. कर्म का अपने अपने बंधविच्छेद के समय जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है। क्यों कि अवधिज्ञान और अवधिदर्शन को उत्पन्न करने वाले जीव के प्रबल क्षयोपशम भाव से अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरण के कर्म पुद्गल अत्यंत रूक्ष हो जाते हैं, इसलिये बंधविच्छेदकाल में भी बहुत से कर्म पुद्गल निर्जरा को प्राप्त होते हैं और वैसा होने पर जघन्य प्रदेशसंक्रम नहीं पाया जाता है, इसलिये उसके बिना ऐसा कहा गया है। 'निद्दादुगंत' इत्यादि अर्थात् निद्रा और प्रचला रूप निद्राद्विक अंतरायपंचक और हास्य, रति, भय,
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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