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________________ संक्रमकरण ] [ ११५ उससे आगे संक्रम का अभाव कहा गया है। अंतरकरणम्मिकए चरित्तमोहेणुपुब्बि संकमणं' - अंतरकरण करने पर चारित्रमोहनीय का आनुपूर्वी संक्रमण होता है, ऐसा आगम का वचन है। यश:कीर्ति का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम अपूर्वकरण गुणस्थान में तीस प्रकृतियों के बंधविच्छेद के समय जानना चाहिये, क्योंकि उससे आगे उसका संक्रम नहीं होता। नामकर्म की तैजससप्तक, शुक्ल लोहित हारिद्र वर्ण, सुरभिगंध, कषाय, अम्ल, मधुर रस, मृदु, लघु, स्निग्ध, उष्ण स्पर्श, अगुरुलघु, निर्माण रूप ये ध्रुवबंधिनी बीस शुभ प्रकृतियां हैं। इनका चार बार मोहनीय कर्म के उपशम के अनन्तर बंधान्त अर्थात् बंधविच्छेद होने से आगे एक आवलिका काल जाकर उनका यश:कीर्ति में प्रक्षेपण किया जाता है। अतः उस समय उनका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम पाया जाता है। यहां पर गुणसंक्रम के द्वारा संक्रान्त अन्यप्रकृतियों का दलिक एक आवलिका काल बीतने पर ही अन्यत्र संक्रमण के योग्य होता है, अन्यथा नहीं, जैसा कि कहा है। आवलिगंतुं बंधंता अर्थात् बांधने के पश्चात एक आवलिकाल जाने पर कर्मदलिक संक्रमण के योग्य होता है। तथा – निद्धसमा य थिरसुभा, सम्माद्दिट्ठिस्स सुभधुवाओ वि। सुभसंघयणजुयाओ, बत्तीससयोदहिचियाओ ॥ ८९॥ शब्दार्थ – निद्धसमा – स्निग्ध स्पर्शवत्, य – और, थिरसुभा – स्थिर और शुभ नामकर्म, सम्माद्दिट्ठिस्स – सम्यग्दृष्टि की, सुभधुवाओ वि - शुभ ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों का भी, सुभसंघयणजुयाओशुभ संहनन युक्त, बत्तीससयोदहिचियाओ – एक सौ बत्तीस सागरोपम तक। गाथार्थ – स्थिर और शुभ नामकर्म का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम स्निग्ध स्पर्शवत् जानना चहिये तथा सम्यग्दृष्टि की शुभ ध्रुवबंधिनी शुभ संहनन युक्त एक सौ बत्तीस सागरोपम तक बांधी गई सम्यक्त्व प्रायोग्य प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम बंधविच्छेद के पश्चात एक आवलिकाल के बाद यश:कीर्ति में संक्रमाते समय होता है। विशेषार्थ – स्निग्ध स्पर्श के समान स्थिर और शुभ नामकर्म का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम जानना चाहिये। इस का अर्थ यह है कि जिस प्रकार पहले शुभ ध्रुवबंधिनी नामकर्म की प्रकृतियों के अन्तर्गत स्निग्ध स्पर्श के उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम का कथन किया गया है, उसी प्रकार स्थिर और शुभ नामकर्म इन दोनों प्रकृतियां के लिये भी जानना चहिये। अध्रुवबंधिनी होने से इन दोनों प्रकृतियों का पृथक् ग्रहण किया गया है। __ "सम्माद्दिट्ठिस्स' इत्यादि अर्थात् सम्यग्दृष्टि के जो शुभ ध्रुवबंधिनी पंचेन्दिय जाति, समचतुरस्त्रसंस्थान, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, सुभग, सुःस्वर और आदेय लक्षण वाली बारह प्रकृतियां हैं। ये शुभ संहनन युक्त अर्थात् वज्रऋषभनाराचसंहनन सहित हैं। क्योंकि नारक भव या देव
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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