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________________ [ ११३ संक्रमकरण ] युक्तियां नहीं। क्योंकि प्राचीन ग्रन्थों में अन्य युक्तियां दिखाई नहीं देती हैं । अतः अन्य युक्तियों की कल्पना निर्मूल है। क्योंकि अन्यथा कल्पना नहीं की जा सकती है। इसी तरह आगे भी यथायोग्य इसी प्रकार से केवलज्ञान के द्वारा ऐसा देखा गया है, इसी उत्तर का अनुसरण करना चाहिये । तथा वरिसवरित्थिं पूरिय, सम्मत्तमसंखवासियं लहियं । गंता मिच्छत्तमओ, जहन्नदेवट्ठिई भोच्चा ॥ ८६ ॥ आगंतु लहुं पुरिसं, संछुभमाणस्स पुरिसवेयस्स । तस्सेव सगे कोहस्स, माणमायाणमवि कसिणो ॥ ८७ ॥ शब्दार्थ वरिसवरित्थिं – नपुंसकवेद और स्त्रीवेद को, पूरिय सम्यक्त्व को, असंखवासियं मिच्छत्तमओ - मिथ्यात्व को, जहन्न . असंख्यात वर्ष तक, लहियं - पूरकर, सम्मत्तं प्राप्त हुआ, गंता भोगकर । आगंतु – वहाँ से आकर, लहुं - लघुकाल में (शीघ्र ही), पुरिसं - पुरुषवेद का, संछुभमाणस्सचरमप्रक्षेप करते हुए, पुरिसवेयस्स - अपने अपने, कोहस्स - क्रोध का, माणमायाणमवि पुरुषवेद का, तस्सेव उसी जीव को, सगे मान और माया का भी, कसिणो कृत्स्न (अन्तिम उत्कृष्ट ) । गाथार्थ – कोई नपुंसकवेद वाला जीव ईशान देवलोक में उत्पन्न होकर वहां नपुंसक और स्त्रीवेद को पूरकर असंख्यात वर्ष तक सम्यक्त्व का आस्वादन कर अंत में मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ और जघन्य आयु वाली देवस्थिति को भोगकर — - - आस्वादन कर, जघन्य, देवट्ठिई - देवस्थिति, भोच्चा - — वहां से मनुष्यभव में आकर शीघ्र ही पुरुषवेद का क्षपक चरम प्रक्षेप करते हुए पुरुषवेद का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम करता है। उसी जीव के क्रोध, मान और माया का भी अपने अपने चरम प्रक्षेप के समय उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है । विशेषार्थ वरिसवर - वर्षवर अर्थात् नपुंसकवेद वाला जीव उस ईशान लोक में बहुत काल पर्यन्त बार बार नपुंसकवेद का बंध कर और अन्य वेदों के दलिकों का उसमें संक्रमण कर अपनी आयु के क्षय होने पर वहां से च्युत होने पर संख्यात वर्ष की आयु वाले जीवों के मध्य में आकर पुनः असंख्यात वर्ष की आयु वालों में उत्पन्न हुआ । वहां पर असंख्यात वर्षों तक स्त्रीवेद को प्राप्त कर ( संचय कर) तत्पश्चात् असंख्यात वर्षों तक सम्यक्त्व को प्राप्त कर और उसके निमित्त से पुरुषवेद को उतने वर्षों तक बांधता हुआ, उसमें स्त्रीवेद और नपुंसकवेद के दलिकों का निरंतर संक्रमण करता है । तत्पश्चात् पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण अपनी पूरी आयु तक जीवित रह कर अंत समय में मिथ्यात्व को प्राप्त हो कर मरा और सर्व जघन्य दस हजार वर्ष प्रमाण स्थिति वाले देवों में उत्पन्न हुआ। वहां उत्पन्न होकर अंतर्मुहूर्त काल के द्वारा सम्यक्त्व
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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