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बिन इक नमक अलूणो बाजै,
ज्यूं-त्यूं लोग लवै अन्दाजै।। ६. एक कहै अब देखस्यां रे, तेरापथ री तान। पूज-पछेवड़ि कारणै रे, मचसी खींचातान।
खींचातानी भीतर बारै, लड़सी निज-निज हक रै लारै, मोडा मंडसी ऊठसवारै,
नहिं कोइ हटकणहारो आरै ।। १०. एक कहै भीखण गढ्यो रे, मारग जग-विपरीत। इत्ता. दिन लग चालियो रे, ते पिण आशातीत।
ते पिण आशातीत हि भ्यासी, अब ओ खाखो कवण चलासी? मनमत्तै सब चलणो चा'सी,
घर हाणी लोकां में हांसी।। ११. हा! हा! भीखणजी भला रे, सहज रच्यो कोई रास। थाक्या करत मुकाबलो रे, आयो कंठां सांस।
आयो कंठां सांस कितां रै, 'सिंह पाखर्यो किणरै सारै', मानी हार संगठन लारै,
पण अब मोज बणी आपां रै।। १२. कई विवेकी यूं कहै रे, क्यूं आ खाली खीज। सचमुच तेरापंथ री रे, अद्भुत है तजबीज।
अद्भुत है तजबीज अनोखी, रहो देखता सोखी-दोखी, प्रगतिशीलता रुकै न रोकी,
प्रगटी पुण्याई भो-भो की।। १३. ठाम-ठाम हो एकठा रे, लोग करै मिल बात। एकण लेखण स्यूं लिखू रे, कठिण पड़े आ ख्यात।
कठिन पडै आ ख्यात खताणी, जितरा मूंढा उतरी वाणी, जुदो-जुदो कूवां रो पाणी, पार लहै कोई निर्मल नाणी।।
७८ / कालूयशोविलास-१