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बारहवां गीत कालूगणी की शेष हरियाणा यात्रा से शुरू हुआ है। गीत के प्रारम्भ में लाला द्वारकादास (भिवानी) की श्रद्धा-भक्ति का उल्लेख है। हरियाणा यात्रा में थली संभाग के लोगों ने भी बहुत अच्छी उपासना की। वि.स. १६७८ का चातुर्मासिक प्रवास रतनगढ़ हुआ। गत वर्ष हरियाणा की यात्रा में कालूगणी के घुटनों में दर्द हो गया था, उसका कोई स्थायी उपचार नहीं हो सका। रतनगढ़ में 'भिलावा' के प्रयोग से उस पीड़ा का शमन हुआ। चतुर्मास के बाद पोष महीना में कालूगणी बीदासर पधारे। वहां साधु-साध्वियों में सतरंगी और नवरंगी तपस्याः हुई।
उस वर्ष होली चातुर्मासी पक्खी का अवसर सुजानगढ़ को मिला। वहां कालूगणी ने भागवत के आधार पर प्रवचन किया। उसे लेकर वैष्णव लोगों में हलचल हो गई। वे स्थानीय पंडित गजानन्दजी के घर गए। सारी बात सुनकर उन्होंने कहा-'जिस श्लोक के आधार पर प्रवचन किया गया, वह श्लोक तो भागवत . में है। किन्तु उसका अर्थ सही नहीं है।'
पंडितजी को साथ लेकर वे लोग कालूगणी के पास पहुंचे। कालूगणी ने भागवत के श्लोक का अर्थ किया। पंडितजी ने उससे विपरीत अर्थ किया। तब कालूगणी ने चर्पटमंजरी का हवाला दिया। पंडितजी ने भागवत की मुद्रित प्रति मंगवाई। श्रीधरी टीका के साथ मुद्रित भागवत ग्रन्थ प्राप्त होने पर पंडितजी ने अपने शिष्य से उसका वाचन करवाया तो कालूगणी द्वारा प्रतिपादित अर्थ प्रमाणित हो गया। प्रस्तुत घटना से कालूगणी की विद्वत्ता उजागर हुई। प्रबुद्ध लोगों के मन में उनके प्रति आस्था का भाव पुष्ट हुआ।
तेरहवें गीत का मुख्य प्रतिपाद्य है कालूगणी की बीकानेर संभाग की यात्रा। कालूगणी गंगाशहर पधारे, तभी से अन्य सम्प्रदायों के लोग उनके प्रवास को लेकर चिन्तित हो उठे। इस सन्दर्भ में उनका संवाद सद्भावना के अभाव की सूचना देता है।
कालूगणी गंगाशहर से भीनासर पधारे। वहां कानीरामजी बांठिया के नेतृत्व में कुछ लोग शास्त्रार्थ करने आए। उन्होंने उपासकदशा सूत्र के पाठ ‘असइजणपोसणिया' को लेकर चर्चा शुरू की। उनकी ओर से उठाई गई आपत्ति यह थी-आचार्य भिक्षु ने 'बारह व्रत री चौपई' ग्रन्थ की आठवीं ढाल में 'असइजणपोसणिया' का अर्थ असंयतिजनपोसणिया कैसे किया ? कालूगणी ने प्रतिपक्षी लोगों को शान्ति के साथ समझाते हुए कहा-'आपने चौपई की ढाल की एक पंक्ति सन्दर्भ छोड़कर प्रस्तुत की है। पूर्व पंक्ति के साथ दूसरी पंक्ति को जोड़कर पढ़ा जाए तो आपका प्रश्न स्वतः समाहित हो जाएगा।'
३८ / कालूयशोविलास-१