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रहे। उनके अध्यापन का तरीका बहुत ही सुंदर और मधुर था। उनके जीवन की कुछ और भी विशेषताएं थीं, जिनके कारण आचार्यश्री के मन में उनका विशिष्ट स्थान हो गया।
प्रामाणिकता और समय की नियमितता मुनि भीमराजजी के सहज गुण थे। उनकी समय-सारणी निश्चित रहती थी। स्वावलंबन को वे आत्मधर्म समझते थे। अवस्था से वृद्ध हो जाने पर भी उन्होंने अपना वजन किसी दूसरे को नहीं दिया। धर्मसंघ की मर्यादाओं और गतिविधियों के प्रति वे बहुत सतर्क रहते थे। आचार्य की आज्ञा के प्रति वे सदा सावधान थे। उनका अध्ययन गहरा और यौक्तिक था। उनके तर्क अकाट्य होते थे। वे जिन क्षेत्रों में रहते, वहां श्रावकों को थोकड़े बहुत सिखाते थे। सुजानगढ़ के कई व्यक्तियों ने उनके पास ‘गम्मा' सीखा।
मुनि भीमराजजी की गोचरी के संबंध में यह बात प्रसिद्ध थी कि वे धराए हुए आहार से थोड़ा भी अधिक नहीं लाते थे। श्रावक अधिक आग्रह करते तो वे कहते- 'मैं आचार्यश्री को निवेदन कर दूंगा। यदि वे मंगवाएंगे तो चार बार आ जाऊंगा, पर अभी अधिक नहीं लूंगा।'
६६. मुनि सोहनलालजी (चूरू) तेरापंथ धर्मसंघ के आस्थाशील मुनि थे। संघ और संघपति के प्रति उनका समर्पण भाव विलक्षण था। वि. सं. १९८६ लाडनूंचातुर्मास में वे पूज्य कालूगणी के साथ थे। वहां उनके जीवन में आकस्मिक रूप से ऐसी दुर्घटना घटित हुई कि उन्हें संघ के संरक्षण से वंचित होना पड़ा। भावावेश में संघीय आलंबन को छोड़कर वे कुछ दिन अज्ञात रहे। यह स्थिति उनके लिए जितनी दुःखद और दुर्भाग्यपूर्ण थी, संघ के लिए भी कम चिंताजनक नहीं थी।
आवेश का प्रभाव कम हुआ तो वे पुनः संघ की शीतल छाया में आने के लिए आतुर हो उठे। लाडनूं-चातुर्मास में ही वे पुनः कालगणी के समक्ष उपस्थित हुए। वहां पहुंचकर उन्होंने जिस ढंग से अपना अंतःकरण खोलकर रखा, सारी जनता को अपने प्रवाह में ले लिया। वे अविलंब संघ में प्रवेश पाना चाहते थे, पर उस समय उस रूप में उनको संघ-प्रवेश की स्वीकृति धर्मसंघ की अवज्ञा का कारण बन सकती थी। इसलिए बहुत अधिक प्रार्थना के बावजूद भी कालूगणी ने अपनी स्वीकृति नहीं दी।
कालूगणी द्वारा कोई आश्वासन न मिलने पर भी उनकी विनम्र प्रार्थना का क्रम चलता रहा। श्रावक समाज और साधु समाज ने भी निवेदन किया। प्रार्थनाओं के सिलसिले में छह मास का समय पूरा हो गया। आगम निर्दिष्ट विधि के अनुसार छह मास के बाद उन्हें नई दीक्षा देकर धर्मसंघ में सम्मिलित किया गया।
परिशिष्ट-१ / ३०६