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पर डालने के लिए बाहर निकली। सामने मुनि को देखकर, पता नहीं किस द्वेषभाव से प्रेरित होकर उसने वह शाक मुनि को भिक्षा में दे दिया।
मुनि धर्मरुचि भिक्षा लेकर आचार्य के पास पहुंचे। आचार्य ने शाक देखकर कहा-'यह कड़वा तुम्बा है। इसे खाने से मृत्यु हो सकती है। तुम बाहर जाओ। इस शाक को एकांत निरवद्य स्थान में विसर्जित कर दो।' मुनि एकांत स्थान में पहुंचे। शाक की एक-दो बूंद नीचे गिरी और वहां चींटियां आ गईं। देखते-देखते वे मर गईं। मुनि ने सोचा-एक-दो बूंद से इतनी चींटियां मर गईं। सारा शाक विसर्जित करूंगा तो पता नहीं कितनी चींटियों की हिंसा होगी? इस चिंतन के साथ ही वह सारा शाक उन्होंने खा लिया। शरीर में विष का प्रभाव बढ़ते देख मुनि ने आजीवन अनशन स्वीकार कर लिया। अनशन-काल में तीव्र वेदना का अनुभव हुआ। उस वेदना को समभाव से सहन कर आयुष्य पूर्ण होने पर वे सर्वार्थसिद्ध नामक अनुत्तर विमान में देवरूप में उत्पन्न हुए।
६१. श्रमण भगवान महावीर के अंतेवासी शिष्य प्रथम गणधर इन्द्रभूति गौतम गोचरी हेतु वाणिज्यग्राम गए। वहां से लौटते समय उन्होंने उपासक आनंद के अनशन की चर्चा सुनी। वे कोल्लाग सन्निवेश पहुंचे। आनंद गणधर गौतम के दर्शन पाकर बहुत खुश हुआ। अनशन-काल में आनंद को अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ। वार्तालाप के मध्य उसने अपने अवधिज्ञान का प्रसंग उपस्थित करते हुए कहा-'भंते! मैं पूर्व, पश्चिम और दक्षिण दिशा में लवण समुद्र में पांच-पांच सौ योजन तक जान रहा हूं, देख रहा हूं। उत्तर दिशा में चुल्ल हिमवंत पर्वत को जान रहा हूं, देख रहा हूं। ऊर्ध्व दिशा में प्रथम देवलोक सौधर्म कल्प तक जान रहा हूं, देख रहा हूं तथा नीची दिशा में लोलुयच्युत नरकावास को जान रहा हूं, देख रहा हूं।'
इन्द्रभूति गौतम यह सुनकर विस्मित हो गए। वे आनंद को संबोधित कर बोले-'आनंद! गृहस्थ को अवधिज्ञान उपलब्ध हो सकता है, पर इतना बड़ा नहीं हो सकता है। तुमने अनशन में असत्य भाषा का प्रयोग किया है, इसकी आलोचना करो।'
___ उपासक आनंद विनम्रतापूर्वक बोला- 'भंते! जिनशासन में आलोचना सत्य भाषण की होती है या असत्य भाषण की?'
गौतम स्वामी ने स्वीकार किया कि आलोचना असत्य भाषण की होती है। आनंद ने अत्यंत विनीत और कोमल शब्दों में निवेदन किया- 'भंते! तब तो
३०४ / कालूयशोविलास-१