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________________ कलश छंद ३२. बीकाण जयपुर कर सफर मम चरण-रयण-समर्पणम', प्रतिपक्ष-आगम चूरु-चर्चा कीर्तिमानं थर्पणम् । अति विकट आतप राजगढ़ सरदारशहर-पदार्पणम्, उल्लास तीजै री कहाणी स्यूं सुजन-मन-तर्पणम् ।। उपजाति-वृत्तम् १. न यस्य साम्यं लभते शशांको, यस्यच्छटां छादितवान्न सूर्यः । न केवलं व्योमनि संचरिष्णु >षाकरत्वं च न वीक्ष्यतेऽत्र ।। २. कला - कलापै - रभिवर्धमानः; समन्ततो भासितदिग्प्रदेशः। विनाशिताऽज्ञानतमाः सकोऽपि, विभात्यसौ कालुयशःसुधांशुः ।। शशाङ्क जिसकी तुलना में नहीं आ पाता, सूरज जिसकी छवि को आवृत नहीं कर सकता, जो केवल आकाश में ही नहीं, धरती पर भी संचरणशील है, जो दोषा-रात्रि नहीं होने देता, जो अपनी कलाओं से सदा वर्धमान रहता है, जो अपने आलोक से सब दिशाओं को भर देता है और अज्ञान तिमिर का नाश कर देता है, वह कोई कालूगणी के यश का सुधांशु-चंद्रमा चमक रहा है। उपसंहृतिः आचार्य-तुलसी-विरचिते श्री-श्री-कालूयशोविलासे १. वितत-विपक्षि-विक्षेप-प्रकरे बीकानेर-नगरे चातुर्मासिक्यां स्थितौ पौरकृत-कायिक__वाचिक-विकटोपद्रव-सहनेन स्वसर्वंसहत्वाविर्भावन... २. जयपुर-चूरू-बीदासर-चतुर्मास-व्यास-विवर्णन... ३. वैक्रमीय युग-वसु-रस-शशांकाब्दे पौष-कृष्ण-पंचम्यां मम संयम-प्राण-समर्पण... ४. प्रादुर्भूत-पारस्परिक-जन-प्रद्वेषे थली-प्रदेशे ढुंढकागमन-तत्कृत-नवनवोहापोह__प्रसरण-पूज्य-महोदयैस्तत्परिशमन... ५. साधु-साध्वी-संभोग-सम्बन्धि-चूरू-चर्चायां श्रीशासनशिरोमणे-विजय-दुन्दुभि ध्वान-संसरण... ६. अतिविकटातपकाले राजगढ़ादिपुरः संस्पृश्य निधि-वसु-निधि-चन्द्रवैक्रमीयाब्दे सरदारशहरे चातुर्मास-स्थितिकरणरूपाभिः षड्भिः कलाभिः समर्थितः षोडशगीतिकाभिः संदृब्धः समाप्तोऽयं तृतीयोल्लासः। उ.३, ढा.१६ / २४६
SR No.032429
Book TitleKaluyashovilas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
PublisherAadarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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