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अपने जीवन-निर्माता आचार्य के प्रति इतनी विनम्रता! इतनी कृतज्ञता! इतनी गुण-ग्राहकता! पता नहीं, यह वृत्ति साधना की निष्पत्ति है या सहज प्रकृति है? कुछ भी हो, यह वृत्ति पाठक को भी समर्पण का दिशा-संकेत देती है। युवाचार्य पद-प्रदान के उस ऐतिहासिक प्रसंग में आचार्यश्री कालूगणी की निष्कारण करुणा से अभिभूत आचार्यश्री तुलसी की भावनात्मक गहराई में झांकिए
पद युवराज रिवाज साझ सब मुझ नै दीधो स्वामी। रजकण नै क्षण में मेरू बणवायो अंतर्यामी।। जल-बिंदू इन्दूज्ज्वल मानो शुक्तिज आज सुहायो। बो मृत्पिण्ड अखण्ड पलक में कामकुम्भ कहिवायो।।
साधारण पाषाण शिल्पि-कर दिव्य देवपद पायो। किं वा कुसुम सुषमता-योगे महिपति-मुकुट मढायो।। मृन्मय रत्न प्रयत्न-प्रयोगे शाण-पाण सरसायो। बिंदु सिंधुता रो जो उपनय साक्षात आकृति पायो।। लोह-कंचन-करणारो पारस ग्रंथ-ग्रंथ में गायो।
पर पारस-करणारो पारस आज सामनै आयो ।। छठे उल्लास की तेरहवीं गीतिका में धर्मसंघ के आचार्य और उनके अनुयायियों तथा गुरु-शिष्यों के आंतरिक मधुर संबंधों को जो सरस और साहित्यिक अभिव्यक्ति मिली है, वह अपूर्व है। विरह के मंच पर अतीत की सुखद स्मृतियों का मंचन गेय काव्य को श्रव्य से भी अधिक दृश्य जैसी अनुभूति में ढाल देता है।
उल्लासोत्तर पांच शिखाओं में कालूगणी की संक्षिप्त जीवन-झांकी के साथ संस्मरणों की लंबी श्रृंखला इतिहास के अनेक आवृत रहस्यों को खोल रही है। इसमें अनेक घटनाएं ऐसी हैं, जिनकी जानकारी एकमात्र आचार्यश्री को ही है। साहित्यिक अवतरण के अभाव में उनके लोप की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता था, पर अब उन सबको पूरा संरक्षण उपलब्ध हो गया है।
आचार्यप्रवर की परिपक्व लेखन-चेतना से निष्पन्न 'कालूयशोविलास' हमारे धर्मसंघ की एक अमूल्य थाती है। अतिरंजन-मुक्त मानवीय मूल्यों से अनुबंधित यह सृजन अनेक सृजनशील चेतनाओं को नई स्फुरणा देने में सक्षम है। इसकी अपूर्ण यात्रा में भी मुझे विचित्र संतृप्ति का अनुभव हुआ है। इसके स्वाध्याय में निमज्जित चेतना को अपरिसीम आनन्द की अनुभूति हुई है। इस अनुभूति में भी प्रस्तुत कृति के स्रष्टा आचार्यश्री तुलसी की करुणा ने काम किया है।
२० / कालूयशोविलास-१