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गंगा जमना और सुरसती उछल-उछल कर गलै मिलै, विरह-ताप- सन्ताप भुलाकर रूं-रूं हर्षांकूर खिलै । गहरो रंग हृदय में राचै, नाचै मधुकर जिधर निहारो, तेरापंथ पंथ रो प्रहरी म्हामोच्छब लागै प्यारो ।।
शारदीया पूर्णिमा की चांदनी में प्रवासी हंस मानसरोवर लौट आते हैं। हंसोपम साधु-साध्वियां शरदोपम मर्यादा - महोत्सव के अवसर पर गुरुकुलवास में पहुंचकर कैसे अनिर्वचनीय तोष का अनुभव करते हैं
बण्या प्रवासी श्रमण-सितच्छद गुरुकुल- मानस मौज करै, परम कारुणिक कालू-वदन- सूक्त मुक्ताफल भोज वरै । नहिं सरदी-गरमी रो अनुभव, साक्षात शरद वरद वरतारो, तेरापंथ पंथ रो प्रहरी म्हामोच्छब लागै प्यारो ।।
‘कालूयशोविलास' के चरितनायक, प्राणहारी व्रण - वेदना को प्रतिहत नहीं
कर पाए, फलस्वरूप अंतश्चेतना के सतत जागरण की स्थिति में भी उनकी शरीर-चेतना के ओज पर कुहरा छाने लगा। उस समय कवि की मनःस्थिति को उन्हीं के शब्दों में देखिए
आज म्हांरै गुरुवर रो लागै अंग अडोळो । सदा चुस्त- सो रहतो चेहरो सब विध ओळो - दोळो । । कुण जाणी व्रण-वेदन वेरण दारुण रूप बणासी, सारै तन में यूं छिन छिन में अपणो रोब जमासी । ओ उणिहारो रे जाबक पड़ग्यो धोको ।।
इस प्रसंग का समूचा वर्णन इतना सजीव और द्रावक है कि पढ़ते-पढ़ते आंखें नम हो जाती हैं ।
काव्य की किशलय काया अलंकारों से विभूषित होकर अपने सौंदर्य को अतिरिक्त निखार देने में सक्षम हो जाती है । छन्द, रस, अलंकार आदि के समुचित समन्वयन से आबद्ध सुललित और रसीले शब्द जब भाव-भूमि पर अंकित होते हैं तो अपने पाठक को विमुग्ध कर देते हैं । आचार्यश्री की कृतियों में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, यमक आदि अलंकार एक-दूसरे से आगे दौड़ रहे हैं, तो अनुप्रास अलंकार एक स्वाभाविक अभिव्यक्ति के रूप में प्रस्तुत है । इस प्रस्तुति के उत्कर्ष में आचार्यश्री का शब्द-शिल्प भावना की लहरों पर अठखेलियां करता हुआ प्रतीत हो रहा है । कुछ निदर्शन देखिए
१८ / कालूयशोविलास-१