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शिशु-मुनि के प्रकंपित गात ने आचार्य के मन को प्रकंपित कर दिया। उन्होंने अपनी चद्दर उतारकर मुनि कालू को ओढ़ा दी।
गुरुदेव द्रवित करुणा आणी, निज गाती शिशु-तन पर ठाणी।
दीन्ही मनु युवपद-सहनाणी।। शिष्य की प्रज्ञा को स्फुरणा देने के लिए गुरु अपने पुरुषार्थ की सतत-प्रवाही कई धाराएं उस दिशा में मोड़ देते हैं। मघवागणी ने मुनि कालू की वक्तृत्व-कला विकसित करने के लिए जो उपक्रम किए, उसका एक नमूना देखिए
गुरुदेव स्वयं गाणे री गती सिखाता बोलण री विध, व्याख्या री कला बताता। खुद अर्थ करी कालू मुख ढाळ गवाता,
निर्माण शिष्य रो निज कर्तव्य निभाता।। मुनि कालू ने मघवागणी की सन्निधि में अनिर्वचनीय आत्मीय भाव का अनुभव किया। जिस क्षण क्रूर काल ने आत्मीय अनुबंधों की उस रजत-रज्जु को एक झटके से तोड़ा, उस समय मुनि कालू के कोमल मन पर तीव्र आघात हुआ। उनकी विरह-व्यथित मनःस्थिति के गवाक्ष में झांकिए
नेहड़लां री क्यारी रो म्हारी रो के आधार? सूक्यो सोतो जो इकलोतो सूनो-सो संसार। आ इकतारी थारी म्हारी सारी ही विसार।
कठै क्यूं पधाऱ्या म्हारी हृत्तंत्री रा तार! 'कालूयशोविलास' के चरितनायक अपने आप में एक काव्य, उपन्यास या इतिहास थे। आचार्यश्री तुलसी ने अपनी प्रतिभा-प्रभा से आलोकित कर उस काव्य या इतिहास को अमरत्व दे दिया। कवि की लेखनी का स्पर्श पाए बिना कोई भी व्यक्तित्व निर्बाध रूप से प्रवाहित हो नहीं सकता। आचार्यश्री की लेखनी में एक ओर जहां सुललित शब्द-प्रवाह है, वहां भाव-पक्ष की रस-प्रवणता भी कम लुभावक नहीं है। पूज्य कालूगणी के पदारोहण के समय कवयिता उनके मुखारविन्द को चंद्रमा से उपमित कर नई प्रच्छादनिका में छिटकती हुई धवल-धवल चांदनी की आभा देखते हैं
१४ / कालूयशोविलास-१