________________
तृतीय उल्लास
शिखरिणी-वृत्तम् सदा यस्यास्याब्जं रविरपि लुलोके सखिधिया, स्फुटं दृष्ट्वा रात्रिंदिवमहह चन्द्रोऽपि चकितः । अहो भव्या भंगा अजलजमपि प्रेक्ष्य मुदितास्तदाख्यानोद्यानेऽहमलिरिव मोदादभिरमे ।।
जिनके मुख-चंद्र को सूरज भी सदा मित्र-भाव से देखता, जिनको दिन-रात समान रूप से उदित देखकर चंद्रमा विस्मित रह जाता, जिनका मुख-कमल जलज न होने पर भी भव्य-भ्रमरों को प्रमुदित करने वाला था, उन (कालूगणी) के आख्यान रूप उद्यान में मैं भ्रमर की तरह प्रसन्नता से रमण करता हूं।
उल्लास : तृतीय / १७५