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१५. पवयण-वयण-विवेचना रे, समुचित समय विमास।
व्याख्याने आणे तदा रे, पूरवधर आभास ।। १६. श्लोक लोक-मन-मोहना रे, संस्कृत में बिन रोक।
सुणी ओक तजि विश्रम्यो रे, सुरगुरु तो सुरलोक।। १७. अनुपम अंग-सुरंगता रे, बिन भूषण अभ्यंग। ___व्यंग भाव दिल में भजी रे, अंगज आज अनंग।। १८. अद्भुत वत्सलता भली रे, सारां पर इक साथ।
भणै सकल जन मोद स्यूं रे, त्रिभुवन-तात वदात।। १६. अतिशय आभा ओपती रे, अंतर अच्छ अनूप।
अतिशयोक्ति नहिं जो कहूं रे, वीरप्रभु-प्रतिरूप।। २०. चकित हुया जन देखनै रे, मुख मुखरित आवाज।
ओ आसी इण तखत पै रे, कुण करतो अन्दाज।। २१. मेला-मेला राखतो रे, तनु-अनुकूल दुकूल।
भूल चूक नहिं भाखतो रे, बेमतलब वच मूल।। २२. साद-साद में सादगी रे, दरसातो हर बार।
वाणी वाद-विवादगी रे, नहीं कही मुख बार।। २३. मौनी करतो गोचरी रे, ल्यातो पाणी-पात्र।
उण दिन इण दिन में हुयो रे, ओ अंतर अतिमात्र।। २४. बैठ्या मन में सोचता रे, डालिम गणिवर बाद।
स्वाद मधुर व्याख्यान रो रे, आसी निशिदिन याद ।। २५. पिण आ कल्पित कल्पना रे, राखी हृदये व्याप।
न सुणी कालू-देशना रे, सो करसी अनुताप।। २६. गुण जितरा आचार्य रा रे, आगम रै अनुभाव।
एक अंग में झांकल्यो रे, गादी रो परभाव।। २७. मघवा कर खरसाणता रे, डालिम री पहचाण।
कालू री कोहनूरता रे, आज हुई सुप्रमाण।। २८. पारस्परिक विमर्शणा रे, करै लोक अस्तोक।
पल-पल में पुलकित हुवै रे, कालू-वदन विलोक।।
१. देखें प. १ सं. ३५ २. देखें प. १ सं. ३६
६८ / कालूयशोविलास-१