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महावीरकालीन सामाजिक और राजनैतिक स्थिति
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भोग-विलासिता उनसे दूर न रह सकी। ऐसी स्थिति में भगवान बुद्ध ने शीलवती ब्राह्मणों की स्थिति जनता के सामने रखी-उस समय ब्राह्मण सदाचार से युक्त थे। इस सदाचार का फल भी उन्हें प्राप्त होता था। वे अवध्य थे, अजेय थे, धर्म से संरक्षित थे। आगमिक व्याख्या युग में तो इनकी प्रभुत्ता चरम पर थी, क्योंकि संघदासगणी (6ठी ईस्वी शताब्दी) ने तो यहां तक कह दिया है कि प्रजापति ने इन्हें पृथ्वी पर देवता के रूप में सृजन किया है और इन ब्रह्म बंधुओं को दान देने से महान् फल की प्राप्ति होती है (निशीथभाष्य, 13.4423 [30])। इन तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि महावीरयुग में क्षत्रिय और ब्राह्मण इन दोनों का समाज में आदरणीय स्थान था।
कैलाशचन्द्र शास्त्री ने लिखा है कि जैसे ब्राह्मणकाल में यज्ञों की प्रधानता थी, वैसे ही उपनिषद् काल में यह स्थान आत्मविद्या ने ले लिया और ऋषि लोग उसे जानने के लिए क्षत्रियों का शिष्यत्व तक स्वीकार करते थे। इस प्रकार की सामाजिक स्थिति में जब महावीर के पूर्व उपनिषद् काल में आत्मविद्या का प्रचलन बढ़ा परन्तु फिर भी ब्राह्मण की यज्ञ परम्परा महावीरयुग में गतिशील थी, जिसका समर्थन करने वाले श्रमण और ब्राह्मण दोनों वर्ग थे। आचारांग सूत्र में स्पष्ट रूप से कहा है कि इस लोक में कुछ श्रमण और ब्राह्मण परस्पर विरोधी मतवाद का निरूपण करते हैं-किसी भी प्राणी, भूत, जीव और सत्व का हनन किया जा सकता है, उस पर शासन किया जा सकता है। उन्हें बंदी बनाया जा सकता है, परिताप दिया जा सकता है और उसका प्राण वियोजन भी किया जा सकता है। इसमें भी तुम जानो कि इसमें कोई दोष नहीं है (आचारांगसूत्र, I.4.2.20 [31])। महावीर ने इसका स्पष्ट विरोध करते हुए उसे अनार्य वचन घोषित किया (आचारांगसूत्र, I.4.2.21 [32])। और कहा जैसे आपको दुःख प्रिय नहीं है, वैसे ही सब प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों के लिए दुःख अप्रिय है, अशांतिजनक है और महाभयंकर है (आचारांगसूत्र, I.4.2.26 [33])।
__भगवान महावीर ने ब्राह्मणों के यज्ञादि का विरोध करते हुए कहा है कि-हे ब्राह्मणो! अग्नि का समारम्भ कर और जल मज्जन कर बाह्यशुद्धि के द्वारा अन्तःशुद्धि क्यों करना चाहते हो? (उत्तराध्ययन, 12.38 [34])। जो मार्ग केवल बाह्य शुद्धि का है, उसे कुशल पुरुषों ने इष्ट नहीं बतलाया है। इस प्रकार बाह्य शुद्धि एवं कर्मकाण्ड को निरर्थक बताकर विशुद्ध आचरण की प्रतिष्ठा पर बल दिया।
1. कैलाशचन्द्र शास्त्री, जैन साहित्य का इतिहास (पूर्व पीठीका), श्री गणेशवर्णी दिगम्बर जैन
संस्थान, नसिया, वाराणसी-5, [प्रथम संस्करण, 1963], द्वितीय संस्करण, 1996, पृ. 8.