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________________ महावीरकालीन अन्य मतवाद उपचय - संग्रह या बंध प्रशस्ति तथा तिरस्कार या अपमान ये दोनों ही हुए बिना नहीं रहते। कहीं न कहीं तो होते ही रहते हैं और वैसा होने पर कर्म का अवश्य होगा। कर्मोपचय से शुद्धि का अभाव होगा । शुद्धि का अभाव या अपगम होने से मोक्ष का भी अभाव होगा। मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकेगा । अतः यह सिद्धान्त समीचीन नहीं है क्योंकि जिनके समस्त कलंक - कालिमा नष्ट हो गई है तथा जो समग्र पदार्थों का सच्चा स्वरूप जानते हैं, जो कृतकृत्य हो चुके हैं । जिन्हें जो करना था, वह सब कर चुके हैं, जो स्तुति तथा निन्दा को एक समान समझते हैं, यह मैं हूं- यह मेरा है ऐसा परिग्रहात्मक भाव जिनका अपगत हो चुका है, ऐसे मुक्त जीवों में राग द्वेष उत्पन्न होना कभी संभव नहीं होता । जब उनमें रागद्वेष हीन हो तो कर्मबंध कैसे हो सकता है । कर्मबंध न होने से मोक्षगत जीव पुनः संसार में कैसे आ सकते हैं । अतएव इस असत् या मिथ्या सिद्धान्त में विश्वास करने वाले वे परमतवादी यद्यपि द्रव्य रूप में कथञ्चित संयम का अनुपालन करते हैं किन्तु ज्ञान के सम्यक् न होने पर वें जिसमें प्रवृत्त हैं, वह अनुष्ठान भी संयम नहीं होता ( सूत्रकृतांगवृत्ति, पृ. 31 [613]) । 227 वस्तुतः आत्मा का स्वभाव कर्मलेप से रहित होने पर ऊंचा उठने का होता है अर्थात् ऊर्ध्वगमन वाला होता है । अधोगमन वाला नहीं । अतः पूर्ण सिद्ध मुक्तात्मा संसार में आगमन रूप पतन में नहीं गिर सकती । पूर्ण सिद्धि की स्थिति में वे संसार की समस्त आत्माओं को समान मानते हैं, उस स्थिति में कोई अपना-पराया नहीं होता । फिर वे अपने पूर्व शासन के हित का क्यों सोचेंगे? वास्तव में वे अवतारवादी कुछ भावुक प्रतीत होते हैं। क्योंकि वे संसार की समस्याओं के नाश करने में अपने आराध्य, इष्ट को वापिस बुलाने की इस तरह कल्पना कर लेते हैं कि वे आत्मा की ऊर्ध्वगामिता के सिद्धान्त पर विचार करना भूल जाते हैं । वहीं, दूसरी तरफ जैन दर्शन अचल, अरूप, अनन्त, अक्षय, अव्याबाध, पुनः संसार में आवागमन रहित रूप सिद्ध गति को ही मुक्ति मानता है, ऐसा वह सिद्ध, कर्म आदि से रहित होता है । इस तरह की मुक्ति का स्वरूप अन्य दर्शनों में दृष्टिगत नहीं होता । अन्य प्रायः तो सिद्ध को पुनरागमन युक्त मानते हैं । सिद्ध या सिद्धि का अर्थ वे योगविद्या से अष्टसिद्धि की प्राप्ति या रससिद्धि अथवा जितेन्द्रिय होने मात्र से सर्वकामसिद्ध मान लेते हैं ।
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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