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जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
20. दिसापोक्खी'-जल से दिशाओं का सिंचन कर पुष्प-फल आदि बटोरने वाले 21. वक्कवासी-वल्कल धारण करने वाले, 22. अम्बुवासी-जल में रहने वाले, 23. बिलवासी-बिलों में रहने वाले, 24. जलवासी-जल में रहने वाले, 25. वेलवासी-समुद्र के किनारे रहने वाले, 26. रूक्षमूलक, 27. अम्बुभक्खी-जल भक्षण करने वाले, 28. वाउभक्खी-वायु पीकर रहने वाले, 29. सेवालभक्खी-केवल
शैवाल खाकर जीवन यापन करने वाले, 30. मूलाहार-मूल का आहार करने वाले, 31. कन्दाहारा-कन्द का आहार करने वाले, 32. त्वचाहारा-त्वचा का आहार करने वाले, 33. पत्राहारा-वृक्ष के पत्तों का आहार करने वाले, 34. पुष्पाहारा-फूलों का आहार करने वाले, 35. बीजाहार-बीजों का आहार करने वाले, अपने आप गिरे हुए, पृथक् हुए कन्द, मूल, छत्र, पत्र, पुष्प तथा फल का आहार करने वाले। ये पंचाग्नि की आतापना से अपने चारों ओर अग्नि जलाकर तथा पांचवें सूर्य की..आतापना से अपनी देह अंगारों में पकी हुई-सी, भाड़ में भुनी हुई-सी बनाते हुए बहुत वर्षों तक वानप्रस्थ पर्याय का पालन करते हैं।
1. भगवती में दिशाप्रोक्षि साधकों में शिव राजर्षि का आख्यान मिलता है। इन्होंने अपने कौटुम्बिक
पुरुषों के सामने अपने राज्य का भार पुत्रों को सौंप कर परिजनों की आज्ञा ले लोहकडाई, कडछी, ताम्र पात्र आदि तापस भंड लेकर गंगा किनारे वानप्रस्थ तपस्वियों के पास दिशाप्रेक्षियों की प्रव्रज्या स्वीकार की। दीक्षा लेकर जीवन पर्यन्त बेले-बेले तप द्वारा दिशाचक्रवाल तपःकर्म की साधना करूंगा और आतापन भूमि में दोनों भुजाएँ ऊपर उठाकर सूर्य के सामने आतापना लेता हुआ विहार करूंगा-इस प्रकार की साधना द्वारा वह विहार करने लगा। वह प्रथम बेले के पारणे में आतापन भूमि से नीचे उतर, वल्कल वस्त्र धारण कर अपनी पर्णशाला में आया। आकर वेशमय, पात्र और कावड़ को लेकर पूर्व दिशा में जल छिड़का, फिर पूर्व दिशा में सोम महाराजा को आह्वान किया कि शिवराजर्षि की अभिरक्षा करें और उस दिशा में कंद, मूल, पत्र, पुष्प आदि से पात्र भर कुटिया में आये। वहां आकर वेदी का प्रमार्जन किया। दर्भ कलश लेकर गंगा नदी में मज्जन देह शुद्धि की तथा देव पितरों को जलांजलि अर्पित की। फिर कुटिया में आकर दर्भ, कुश और बालुका वेदी की रचना की। अरणी का मंथन किया। अग्नि को प्रदीप्त कर उसके दक्षिण पार्श्व में सात वस्तुओं को स्थापित किया-अस्थि, वल्कल, ज्योति स्थान, शय्याभाण्ड, कमण्डलु, दण्डदारू और स्वयं को स्थापित किया। उसके पश्चात् मधु, घी
और चावल से अग्नि होम किया और वेश्वानर देवता और अतिथि का पूजन किया और स्वयं ने आहार ग्रहण किया। फिर पूर्व विधि से बेले की तपस्या की। इस बार दक्षिण दिशा में जल का सिंचन कर लोकपाल महाराज यम से जीवन रक्षा की प्रार्थना की, तीसरे बेले की तपस्या में पश्चिम दिशा में जाकर वरुण महाराज से रक्षा की प्रार्थना की, चौथी बार महाराज वैश्रमण की पूजा उपासना कर रक्षा की प्रार्थना की, इस प्रकार वह तपस्या क्रम करता (भगवती, 11.9.63-70 [492])।