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जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
का क्षण बीत जाता है और अनागत का क्षण प्राप्त नहीं होता। इन क्रमवर्ती क्षणों में उत्तरवर्ती क्षण वर्तमान क्षण से न अन्य होता है और न अनन्य होता है। वे प्रतीत्य समुत्पाद को मानते हैं, इसलिए वर्तमान क्षण न सहेतुक होता है
और न अहेतुक होता है। चतुर्धातुवाद __दूसरा ये मानते हैं कि पृथ्वी, अप, तेज तथा वायु-ये चारों धातुरूप हैं और ये चारों शरीर रूप में एकाकार हो जाते हैं (सूत्रकृतांग, I.1.1.18 [360])। यह मान्यता भी कतिपय बौद्धों की है (सूत्रकृतांगवृत्ति, पृ. 19 [361])।
चार धातु हैं-1. पृथ्वी धातु, 2. जल धातु, 3. तेज धातु, 4. वायु धातु-ये चारों पदार्थ जगत् का धारण-पोषण करते हैं, इसलिए धातु कहलाते हैं। ये चारों धातु जब एकाकार होकर भूतसंज्ञक रूपस्कन्ध बन जाते हैं, शरीर रूप में परिणत हो जाते हैं, तब इनकी जीवसंज्ञा (आत्मा संज्ञा) होती है (I. मज्झिमनिकाय, भाग-3, पृ. 153, सूत्रकृतांग, पृ. 37 पर उद्धृत, ब्या.प्र., II. विसुद्धिमग्ग, खन्धनिद्देस, III.14.20 बौ.भा.वा.प्र., III. सूत्रकृतांगवृत्ति, पृ. 18 [362])। जैसा कि वे कहते हैं- "यह शरीर चार धातुओं से बना है, इन चार धातुओं से भिन्न आत्मा नहीं है।" भिक्षुओं! जैसे कोई दक्ष गोघातक या उस गोघातक का शिष्य गाय को मारकर, टुकड़े-टुकड़े कर चौराहे पर बैठा हो; वैसे ही भिक्षुओं, भिक्षु इस काया का, चाहे वह जैसे भी स्थित हो, जिस अवस्था में हो, धातुओं के अनुसार यों प्रत्यवेक्षण करता है-इस काया में पृथ्वीधातु, अपधातु, तेजोधातु एवं वायुधातु हैं।
अर्थात् जैसे कुशल गोघातक या उसका वेतनभोगी शिष्य बैल को मारकर, बोटी-बोटी काटकर चारों दिशाओं को जाने वाले राजमार्ग के मध्यस्थान कहे जाने वाले चौराहे पर (गोमांस के) टुकड़े-टुकड़े करके बैठा हो, वैसे ही भिक्षु चारों ईर्यापथों में से जिस किसी प्रकार में स्थित होने से यथास्थित होने से ही यथाप्रणिहित (समाधिस्थ) काया के बारे में “इस काया में पृथ्वीधातु... वायुधातु हैं"-यों धातु के अनुसार प्रत्यवेक्षण करता है। तात्पर्य यह है-जैसे कि गोघातक जब गाय को पालता है तब भी, वधस्थल पर ले जाता है वहां बांधे रखता है तब भी वध करता है और वध के बाद (गाय) मरी हुई देखता है तब