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एकात्मवाद
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भी नहीं था (बृहदारण्यकोपनिषद्, 1.2.1 [323])। उसी में से सृष्टि हुई। तथा कुछ के अनुसार सत् से असत् हुआ और वही अण्ड बनकर सृष्टि का उत्पादक हुआ (छान्दोग्योपनिषद्, 3.19.1 [324])।
इन मतों से भिन्न सत्कारणवादियों का कहना है कि असत् से सत् की उत्पत्ति कैसे हो सकती है? सर्वप्रथम एक और अद्वितीय सत् ही था। उसी ने सोचा मैं अनेक होऊँ। तब क्रमशः सृष्टि की उत्पत्ति हुई (छान्दोग्योपनिषद्, 6.2.1-3 [325])।
इनमें भी एकमत नहीं था तब कोई-कोई ने पंचभूतों (जड़भूतों) से उत्पत्ति बताई (I. बृहदारण्यकोपनिषद्, 5.5.1, II. छान्दोग्योपनिषद्, 1.9.1, 4.3.1 [326])। जब इनसे भी सृष्टि विधान का प्रश्न सुलझा नहीं तब प्राण शक्ति को सृष्टि का उत्पादक तत्त्व बताया गया (छान्दोग्योपनिषद्, 1.11.5, 4.3.3 [327])।
उपनिषद् के इन वादों को संक्षेप में कहना हो तो कहा जा सकता है कि किसी मत से असत् से सत् की उत्पत्ति होती है, किसी के मत से विश्व का मूल तत्त्व सत् है, किसी के मत से वह सत् जड़ है और किसी के मत में वह तत्त्व चेतन है। कहने का तात्पर्य है कि विश्व की उत्पत्ति के मूल में जड़ अथवा चेतन कोई तत्त्व तो अवश्य निहित है, किन्तु वह तत्त्व कोई आत्मा अथवा पुरुष नहीं हो सकता है। लेकिन इसके विपरीत एक अन्य विचार मिलता है, वह यह कि विश्व का मूल कारण या तत्त्व आत्मा ही है और वह परम ईश्वर जगत् का आदि कारण है (I. श्वेताश्वतरोपनिषद्, 6.12, II. छान्दोग्योपनिषद्, 7.25.2, III. बृहदारण्यकोपनिषद्, 2.4.5 [328])।
इस प्रकार इन सभी वादों के अस्तित्व को देखते हुए प्रो. रानाडे का कहना है कि उपनिषद्कालीन दार्शनिकों की दर्शन के क्षेत्र में जो विशिष्ट देन आत्मवाद है।' विभिन्न वादों के होते हुए भी आत्मवाद ने अपना महत्त्व स्थापित किया और यह सिद्धान्त उपनिषदों का विशेष तत्त्व माना जाने लगा, जो एकात्मवाद के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उपनिषदों का ब्रह्म और आत्मा भिन्न नहीं, किन्तु आत्मा ही ब्रह्म है (बृहदाराण्यकोपनिषद्, 2.5.19 [329])। जैन आगमों के परिप्रेक्ष्य में एकात्मवाद का प्रतिपादन इस प्रकार है
1. R.D. Ranade, Constructive Survey of Upanishadic Philosophy, p. 246.