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जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
से समझना चाहिए, क्योंकि संसारी दशा में आत्मा को अपने निजी गुणों का विकास इन्द्रियों के सहारा ही करना होता है।
संसार परिवर्त आत्मा पुद्गलों से इतना एकमेक हो गया है कि उसके बिना उसका काम ही नहीं चल पाता, यहां तक कि उसे इन कर्म पुद्गलों से छूटने के लिए भी इनका ही सहारा लेना पड़ता है। व्यक्ति को अपने शुद्ध स्वरूप को पाने के लिए जो साधना करनी होती है, उसके लिए भी इन शरीरादि पौद्गलिक पदार्थों का ही अवलम्बन लेना पड़ता है। इस प्रकार निमित्त की दृष्टि से आत्मा को रूपी भी माना गया है। शरीरादि की क्रियाएँ भी जीव के संसर्ग से ही होती है, निर्जीव शरीर आदि में स्वयं क्रिया नहीं हो सकती, इसी अपेक्षा से शरीर की पौद्गलिक क्रियाओं को आत्मा की पर्याय भी मानी गई है। जैसा कि भगवती में कहा गया है-प्राणातिपात, मृषावाद, यावत् मिथ्यादर्शनशल्य,
औत्पत्तिकी यावत् पारिणामिकी बुद्धि अवग्रह यावत् धारणा, उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार पराक्रम, नैरायिकत्व असुरकुमारत्व यावत् वैमानिकत्व, ज्ञानावरणीय यावत् अन्तराय कर्म, कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या, सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, चक्षुदर्शन यावत् केवलदर्शन अभिनिबोधिकत्व यावत् विभंगज्ञान, आहारसंज्ञा यावत् परिग्रह संज्ञा, औदारिक शरीर यावत् कार्मणशरीर, मनोयोग, वचनयोग, काययोग तथा साकारोपयोग एवं अनाकारोपयोग-ये सब और इनके जैसे अन्य धर्म, क्या आत्मा के सिवाय अन्यत्र परिणमन नहीं करते हैं? उत्तर में कहा गया-प्राणातिपात से लेकर अनाकारोपयोग तक, सब धर्म आत्मा के सिवाय अन्यत्र परिणमन नहीं करते हैं। अतएव इनको आत्मा की पर्याय मानी जाती है। पर्यायें द्रव्य से कथंचित अभिन्न होती हैं। इस दृष्टि से वे सब पर्यायें आत्मा की हैं। आत्मा के सिवाय अन्यत्र ऐसा परिणमन नहीं होता है। अतएव ये आत्मपर्यायें हैं। इस प्रकार आत्मा अपने शुद्ध मौलिक रूप में अरूपी है और पौद्गलिक संसर्ग के कारण कथंचित रूपी भी है (भगवती, 20.3.20 [298])।
स्वदेह परिमाणत्व-यद्यपि आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप की दृष्टि से अरूपी और अमूर्त है, तथापि आत्मप्रदेशों में संकोच और विस्तार होने से वह अपने छोटे-बड़े शरीर के परिमाण वाली हो जाती है।' स्वदेह परिमाण वाली कहने का
1. क्रमशः निगोद और केवली समुद्घात की अवस्था में ऐसा होता है।