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एकात्मवाद
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जीव-जो प्राणधारण करता है-जीता है, आयुष्यकर्म और जीवत्व का अनुभव करता है, वह जीव कहलाता है (भगवती, 2.1.15 [265])। प्राण, भूत, जीव और सत्व-ये जैन परम्परा में जीव के चार पारिभाषिक शब्द भी कहे गए हैं-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीवों को 'प्राण', वनस्पतिकाय को 'भूत', पंचेन्द्रिय प्राणियों को 'जीव' और चार स्थावर जीवों को 'सत्व' कहते हैं ([266])।
I. प्राण-क्योंकि वह आन, अपान तथा उच्छ्वास और निःश्वास करता है, इसलिए वह प्राण शब्द के द्वारा वाच्य होता है।
II. भूत-क्योंकि वह था, है और होगा, इसलिए वह भूत शब्द के द्वारा वाच्य होता है।
III. जीव-देखें ऊपर जीव में।
IV. सत्व-क्योंकि वह शुभ-अशुभ कर्मों के द्वारा विषादयुक्त बनता है, इसलिए वह सत्व शब्द के द्वारा वाच्य होता है (भगवती, 2.1.15 [267])।
जीवास्तिकाय-सभी जीवों का समुदाय जीवास्तिकाय कहलाता है (भगवती, 2.10.135 [268])।
विज्ञ-क्योंकि वह तिक्त कटु विषैले, अम्ल और मधुर रसों को जानता है, इसलिए वह विज्ञ शब्द से जाना जाता है (भगवती, 2.1.15 [269])।
चेता-पुद्गलों का चयनकर्ता होने से चेता है। जेता-कर्म शत्रुओं का विजेता होने के कारण जेता है। आत्मा-विविध गतियों में सतत्-अतत् गमन (परिभ्रमण) करता है। रंगण-रागयुक्त है। हिण्डुक-विविध गतियों में भ्रमण करता है। पुद्गल-शरीरों के पूरण गलन होने से। मानव-जो नवीन न हो, अनादि हो, वह मानव है। कर्ता-कर्मों का कर्ता। विकर्ता-विविध रूप से कर्मों का कर्ता अथवा विच्छेदक। जगत्-अतिशयगमनशील (विविध गतियों) में होने से।