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स्वकथ्य
जैन दर्शन विश्व का एक वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक दर्शन है। जैन दर्शन का प्रथम पाठ है-कर्मवाद। कर्मवाद जैन सिद्धान्त की नींव है। अध्यात्म को समझने के लिए कर्मवाद को समझना जरूरी है। भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित 'कर्म सिद्धान्त' भारत की धरा को ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व को जैन दर्शन को समझने के लिए कर्म सिद्धान्त को समझना आवश्यक है।
भगवान महावीर ने मात्र मनुष्य जगत की ही नहीं अपितु एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक सम्पूर्ण प्राणी जगत् की मीमांसा की है। कर्मों की प्रकृति, परिणाम, अवधि, तीव्र, मंद भावों की सूक्ष्म विवेचना की है। जैन वाङ्मय में चौदह पूर्व को ज्ञान का अक्षय-कोष माना गया है। उसमें आठवें पूर्व का नाम है-कर्मवाद। इसके अतिरिक्त दूसरे अग्रायणीय पूर्व में कर्मप्राभृत नाम का विभाग था। जिसमें कर्म संबंधी चर्चाएं थीं। पूर्वो से उद्धृत कर्म शास्त्र आज भी श्वेताम्बर तथा दिगम्बर दोनों परम्पराओं में उपलब्ध है।
श्वेताम्बर परम्परा में कर्मप्रकृति, शतक, पंचसंग्रह तथा सप्तातिका ये चार ग्रंथ पूर्वोद्धृत माने जाते हैं। दिगम्बर परम्परा में षट्खण्डागम व कषायप्राभृत ये दो ग्रंथ पूर्वोद्धृत माने जाते हैं। इनमें कर्म संबंधी सब ग्रन्थों का समावेश हो जाता है।
आगमों में भी अनेक स्थानों पर कर्मवाद का विवेचन उपलब्ध है। यथा
'जं जारिसं पुव्वमकासि कम्म, तमेव आगच्छति संपराए।'' अर्थात् आत्मा ने जैसे कर्म किए हैं, संसार में उसी के अनुसार फल मिलता है।
‘कम्मसच्चा हु पाणिणो' प्राणी जैसे कर्म करते हैं, सचमुच वैसे ही फल पाते हैं।
सकम्मुणा विपरियासुवेइ कम्मी कम्महि किच्चइ मूर्ख अपने कर्म से ही दुखी होता है, कर्मी अपने कर्मों से ही दुखी होता है।
1. सूत्रकृतांग 1/5/2/23 2. उत्तराध्ययन 7/20 3. सूत्रकृतांग 9/4
8 कर्म-दर्शन