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136. कर्म का भोग स्वतः होता है या दूसरों के सहयोग से? उ. जो कर्म परिपक्व होकर स्वतः भोग में आते हैं वह स्वतः भोग है। घात
प्रतिघात आदि निमित्त से जो कर्मों की उदीरणा होती है वह परतः होता है। 137. क्या कर्म आत्मा के सभी प्रदेशों से बंधते हैं? उ. जीव असंख्यात प्रदेशी द्रव्य है। आत्मा के असंख्य प्रदेशों से प्रवृत्ति होती
है और सभी आत्म प्रदेशों के कर्मों की अनन्त वर्गणाएं बंधती है। जीव
कर्म-ग्रहण किसी एक प्रदेश से ही नहीं, सभी प्रदेशों से करता है। 138. जीव कितनी दिशाओं से कर्म ग्रहण करता है? उ. जीव सभी दिशाओं से कर्म ग्रहण करता है—ऊपर-नीचे, दायें-बायें,
आगे-पीछे सभी दिशाओं से होता है। 139. आत्मा-चेतन पर कर्म-जड़ का प्रभाव कैसे पड़ता है? उ. कर्म का मन, वचन व काया पर गहरा प्रभाव पड़ता है। इन तीनों का सीधा
संबंध आत्मा से है, इसलिए कर्म आत्मा द्वारा आकर्षित होते हैं। स्थूल रूप से भी यह देखा जाता है—शराब पीने वाला व्यक्ति अपनी चेतना को भूल बैठता है, पागल सदृश बन जाता है। अचेतन-शराब का चेतन-व्यक्ति पर इतना प्रभाव पड़ता है, फिर कर्म का आत्मा पर प्रभाव क्यों नहीं हो
सकता। 140. कर्म मूर्त है, जीव अमूर्त है, इस स्थिति में कर्म जीव का अनुग्रह-निग्रह
कैसे कर सकता है? उ. जैसे मदिरापान और विषभक्षण आदि से विज्ञान, जिज्ञासा, धृति, स्मृति
आदि जीव के अमूर्त गुणों का उपघात तथा दूध, शर्करा, धृतपूर्ण, भेषज आदि उनका अनुग्रह होता है, वैसे ही मूर्त कर्म से अमूर्त जीव का उपधात
और निग्रह होता है। 141. संसारी आत्मा मूर्त है या अमूर्त? उ. संसारी जीव एकान्त रूप से सर्वथा अमूर्त नहीं है। अनादिकाल से कर्म
सन्तति जीव के साथ वैसे ही एकमेक है, जैसे लोहपिण्ड में अग्नि। मूर्त कर्म के साथ जीव का कथंचित् अनन्य सम्बन्ध होने से जीव कथंचित् मूर्त
142. कर्म की मूर्तता को कैसे जाना जा सकता है? उ. कर्म की मूर्तता को जानने के चार हेतु हैं
(1) सुख संवित्ति-कर्म का सम्बन्ध होने पर सुख का संवेदन होता है।
कर्म-दर्शन 35