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अन्तराय कर्म
स्वर्णभद्रा नगरी में सर्वज्ञ आचार्य विमलवाहन पधारे। उनका धर्मसंघ तेजस्वी धर्मसंघ था। उस धर्मसंघ में अनेक साधु लब्धिधर, पूर्वधर, अवधिज्ञानी, मन:पर्यवज्ञानी थे। वहाँ लोगों में आचार्य के प्रति गहरी श्रद्धा थी और आचार्य का भी उन पर अच्छा प्रभाव था। मध्याह्न के समय कुछ युवक आचार्यश्री की सन्निधि में पहुंचे। उनमें से एक युवक गुणभद्र अपनी जिज्ञासा रखते हुए बोला-गुरुदेव! मैं सुपात्र दान देना चाहता हूँ, वस्तु का योग भी है, किन्तु दान का योग नहीं मिलता। इसके पीछे क्या कारण है? दान देने की बहुत भावना है पर कुछ न कुछ रुकावट आ जाती है। कभी तो साधु-संत नहीं आते। यदि कृपा कर आ भी जाते तो कोई न कोई रुकावट आ जाती है।
गुरुदेव! एक बार एक मुनि को खूब प्रार्थना कर घर ले गया। द्रव्य शुद्ध था, मैं भी बिलकुल शुद्ध था। मुनि भी आहार लेने के लिए और मैं आहार देने के लिए तैयार थे। हाथ में रोटी ली। मेरा मन प्रसन्न हो रहा था कि आज प्रथम बार सुपात्रदान देने का मौका मिलेगा। इतने में ऊपर से उड़ते हुए पक्षी की चोंच से हरी सब्जी का एक टुकड़ा मेरे सिर पर पड़ा और मैं दान देने के अयोग्य हो गया। उस दिन मेरे घर से कोई भी वस्तु मुनिजी ने नहीं ली। गुरुदेव! इसका क्या कारण है?
आचार्यश्री ने कहा—गुणभद्र! वह अन्तराय कर्म का परिणाम है। ऐसे यह कर्म समस्त कर्मों के विपाक के साथ जुड़ता है और पृथक् भी। तुमने दानान्तराय कर्म प्रकृति का बंध किया। उसी का अभी विशेष रूप से उदयकाल चल रहा है।
गुणभद्र सुनो! तू पूर्वजन्म में जागीरदार था। तुम्हारे गांव में मुनि आये। तुमने सोचा-दान तो मेरे घर से ही दिया जाना चाहिए, संतों से कहूंगा तो संत मानेंगे नहीं
और लोग भी अपने-अपने घर की प्रार्थना करेंगे। तुमने पूरे गांव में घोषणा करवा दी कि किसी को मुनिजी को दान नहीं देना है। संत समतायुक्त थे। उस गांव को छोड़कर दूसरे गांव जाने लगे। तब खेत में तुमने भिक्षा ग्रहण करने की प्रार्थना की। साधुओं ने वहां शुद्ध आहार लिया और खेत में ही बैठकर भोजन किया।
तू दान देकर बहुत खुश हुआ और सोचा-आज यह युक्ति काम कर गई। पूरा दान मेरे घर का ही लगा। गुणभद्र! उस समय तुम्हारे दानान्तराय कर्म का बंध
1 कर्म-दर्शन 293