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चूना है। कहीं आशंकाओं की दरार पड़ी हो तो उसे पाटकर इससे पलस्तर करने के लिए काशी नरेश ने भेजा है।"
___ यह सुनते ही सब प्रसन्न हुए। सोमभद्र को कुछ कहना ही नहीं पड़ा। राजा ने सोमभद्र को अपने गले लगा लिया। उसे खूब सम्मान दिया। अपने निजी अतिथिगृह में ठहराया। काफी दिनों तक सोमभद्र को वहाँ रखा। सोमभद्र ने पूरे कलिंग देश का भ्रमण किया।
कलिंग नरेश ने सोमभद्र को प्रशस्ति पत्र लिखा तथा बहुमूल्य पुरस्कार दिये। काशी नरेश के लिए भी काफी उपहार दिये। साथ उसने अपने हस्ताक्षर से युक्त पत्र भी दिया जिसमें काशी राज्य की कल्याणकारी योजनाओं में भारी सहयोग करने का आश्वासन दिया। काशी नरेश ने जब यह सब कुछ सुना, तब सभी ने एक स्वर में निर्णय दिया-यह यशस्वी है। राजा ने उसे योग्य समझकर मुख्य राजदूत नियुक्त कर दिया।
उसी महीने काशी में चार ज्ञान के धारक मुनि विद्युतप्रभ पधारे। प्रवचन के पश्चात् राजा ने पूछा-मुनिप्रवर! विमलवाहन और सोमभद्र दोनों समान शिक्षित होते हुए भी यह अन्तर क्यों? एक युद्ध की घोषणा लेकर आया है और दूसरा राज्य के लिए उपयोगी कार्य करके आया है।
___ मुनि ने कहा-राजन् यह तो नाम कर्म का नाटक है। शुभ और अशुभ नामकर्म कैसे नचाता है। इसका यह प्रत्यक्ष उदाहरण है। __ये दोनों पूर्वभव में महान् विद्वान थे। विमलप्रज्ञ विशालप्रज्ञ नाम से अपनेअपने राज्य में ख्यातिप्राप्त विद्वान थे। इन दोनों के नगर में मुनि श्रुतबाहु पधारे। पहले विमलप्रज्ञ के नगर में पधारे, प्रवचन हुआ, सुनकर लोग बहुत प्रसन्न हुए। फिर भी लोगों ने विमलप्रज्ञजी को पूछा—संत कैसे हैं? इनके पास जाना उपयोगी है या नहीं। पंडितजी ने बहुत गुणगान करते हुए कहा-ऐसे साधु हैं कहाँ? उत्कृष्ट कोटि के बहुश्रुत साधु हैं, इनके पास जितना अधिक समय लगाओगे, जीवन सार्थक होगा। मुनि के प्रवासकाल का लोगों ने अच्छा लाभ उठाया। पण्डितजी के भी शुभ नाम कर्म आदि की पुण्य प्रकृतियों का बंध हुआ।
वहाँ से विहार कर मुनि श्रुतबाहु विशालप्रज्ञ के नगर में पधारे, प्रवचन सुना, फिर भी पण्डित विशालप्रज्ञ से मुनिजी के बारे में पूछा-संत कैसे हैं? विशालप्रज्ञ ने कहा-देखो, ऊपर से अच्छे नजर आते हैं, वक्तृत्व कला में दक्ष हैं। किन्तु मुझे अंदर से दंभी लगते हैं। क्योंकि इनकी छाती पर केश नहीं हैं, अत: ये दम्भी मायावी होने चाहिए। कान छोटे हैं अतः यशस्वी भी नहीं हैं। यहाँ संत आते ही रहते हैं, कोई विशिष्ट ज्ञानी आयेंगे तब तुमको बतला दूंगा, ठोस ज्ञान इनके पास नहीं है।
284 कर्म-दर्शन 1948