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वैसे ही थे। जयसेन गुरुकुल से पढ़कर आया। आने के बाद उसका अधिकतर समय उद्यानों, जंगलों में घूमने-फिरने या शिकार खेलने में ही व्यतीत होता था। राजा ने भी सोचा-अभी जिम्मेदारी से मुक्त है। यह अवस्था घूमने-फिरने की है। राजा की लापरवाही तथा मित्रों की उकसाहट ने राजकुमार को घुमक्कड़ एवं आवारा बना दिया।
एक बार वर्षा ऋतु में मुसलाधार वर्षा हुई। प्रात: राजकुमार ने कर्मचारियों को जंगल में ही भोजन की व्यवस्था करने का आदेश दिया। साथ में ही यह निर्णय लिया कि भोजन सामग्री यहाँ से नहीं लेंगे। जंगल में शिकार करेंगे और उसी के बने पदार्थ खायेंगे।
कर्मचारियों ने वैसी व्यवस्था कर दी। जंगल में तंबू लगा दिये गये। इधर राजकुमार आदि सभी शिकार के लिए घने जंगल में चले गये। वहाँ उन्होंने गर्भवती मादा सूअर को मारने का प्रयत्न किया। मादा सूअर ने भयभीत होकर दौड़ने की कौशिश की, पर उसका गर्भ गिर गया। उस तड़पते हुए बच्चे को छोड़कर उसे भागना पड़ा। उसको बहुत गुस्सा आया। उसने अपने झुण्ड में जाकर रोना रोया।
___ इधर उन्होंने तड़पते हुए सूअर के शिशु को मारा, कुछ खरगोशों को मारा और उन्हें तम्बू में ले आये। सबका मांस पकाया और खाने के लिए बैठे। इतने में सूअरों के टोले ने तंबू पर अचानक हमला कर दिया। कुछ को चीर डाला, कुछ को घायल कर दिया, तंबुओं को तहस-नहस कर दिया। कई नौकर भी घायल हो गये। अपना बदला लेकर सूअर जंगल में चले गये।
राजकुमार प्राण बचाकर भागा और एक वृक्ष पर चढ़ गया। ऊपर बैठा-बैठा सोचने लगा-हमने इस सूअर के बच्चे को मारा, इन्होंने हमारा बदला ले लिया। अगर किसी को नुकसान पहुंचाते हैं तो उसका फल अवश्य भोगना पड़ता है। वैर से वैर बढ़ता है। यह संतपुरुष कहते हैं, किन्तु आज मैंने प्रत्यक्ष देख लिया है। आज मैं इस कुकृत्य को छोड़ दूंगा। चिन्तन की धारा बदलते ही राजकुमार विरक्त हो गया।
राजमहल में आते ही दीक्षा की तैयारी करने लगा। माता-पिता ने बहुत समझाया पर समझा नहीं। रात्रि में कुलदेवी ने आकर कहा-तुम्हारे अभी भोगावली कर्म शेष हैं, इसलिये तू थोड़े समय के बाद में दीक्षा ले लेना। अभी साधुत्व स्वीकार किया तो उसे छोड़कर पुनः गृहस्थी में जाना होगा।
विचारों के वेग में आया हुआ राजकुमार बोला—कृत कर्मों को तोड़ने के लिए ही तो साधु बनता है। यदि भोगने में ही लगा रहूंगा तब तोडुंगा क्या? मैं तो साधुत्व ग्रहण करूंगा। 272 कर्म-दर्शन