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किन्तु राजा के हृदय पर इसका कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। जिस प्रकार पुष्करावर्तमेघ के बरसने पर भी मगसलिया पाषाण भीगता नहीं, उसी प्रकार चाहे जैसा उपदेश देने पर भी मूर्ख पर कोई असर नहीं होता ।
एक बार वह राजा सात सौ उद्दण्ड कर्मचारियों के साथ शिकार खेलने गया । वहां एक मुनि को देखा। राजा ने साथियों से कहा— देखो, यह कोई कोढ़ी जा रहा है । सुनते ही कर्मचारियों ने मुनि को बहुत पीटा। फिर घर लौट आये।
एक दिन राजा अकेला ही शिकार खेलने गया। वहां एक मृग का पीछा किया। पीछे भागते-भागते मूल रास्ता भूल गया और भटकता हुआ नदी तट पर आया । वहाँ एक मुनि कायोत्सर्ग की मुद्रा में स्थित थे। राजा ने मुनि को कान पकड़कर उठाया और नदी के अगाध जल में डूबो दिया। बाद में दया आई और जल से मुनि को बाहर निकाल दिया। मुनि को मूर्च्छित अवस्था में छोड़, राजा घर आकर रानी को सारी बात बता दी। रानी ने कहा—प्राणनाथ! किसी साधारण प्राणी को भी दुःख देने से अनेक जन्म तक दुःख सहन करने पड़ते हैं फिर आपने तो एक मुनि को कष्ट पहुंचाया है, कब तक इस पाप के फल भोगने पड़ेंगे? रानी के समझाने पर राजा ने भविष्य में ऐसा न करने का संकल्प किया।
एक दिन की घटना है— राजा अपने महल के झरोखे में बैठा था। उधर से उसी समय गोचरी के निमित्त घूमते हुए एक मुनि आ निकले। राजा को अपने संकल्प की स्मृति नहीं रही और उसने अपने कर्मचारियों से कहा- - इस भिक्षुक ने समूचे नगर को भ्रष्ट कर डाला। इसे नगर से बाहर निकाल दो। राजा की आज्ञा सुनते ही कर्मचारी मुनि को धक्का देकर बाहर निकालने लगे। रानी ने यह सब देख लिया । रानी ने कहा— राजन्! आपको अपनी प्रतिज्ञा याद नहीं रहती। ऐसे आचरणों से तो नरक के दरवाजे खुल जाएंगे। रानी ने उसी समय मुनि को महल में बुलवाकर राजा को क्षमायाचना करने के लिये कहा। राजा ने क्षमा मांगी। मुनि ने पाप से मुक्त हो के लिए नवपद का जप करने के लिए कहा। राजा और रानी ने नवपद की आराधना की। अनुष्ठान की समाप्ति के उत्सव पर रानी की आठ सखियों और राजा के सात सौ साथियों ने उसका अनुमोदन किया ।
एक बार राजा श्रीकान्त ने 700 साथियों के साथ पड़ोसी सिंह राजा के नगर पर आक्रमण किया। उसने नगरी का कुछ भाग लूट लिया और गायों का एक झुण्ड अधिकृत कर अपने नगर की ओर लौटा। जब राजा सिंह ने यह समाचार सुना तब क्रोधित होकर सेना सहित उसके पीछे भागा। रास्ते में दोनों दल मिले। सिंह की भांति सिंह राजा के सैनिक श्रीकान्त दल पर टूट पड़े। देखते-देखते सात सौ सैनिक स्वर्गस्थ हो गये और श्रीकान्त भाग गया।
कर्म-दर्शन 261