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अन्त:पुर के साथ प्रस्थित हुए। नंदीषेण का अन्त:पुर श्वेत परिधान में था। वह पद्म सरोवर के मध्य हंसिनियों की भांति अत्यन्त शोभित हो रहा था। सभी रानियां सुअलंकृत थीं। वे अन्यान्य अन्त:पुर की रानियों की शोभा को हरण कर रही थीं। अस्थिरमना मुनि ने उन्हें देखकर सोचा-मेरे पूज्य आचार्य नंदिषेण ने इतना सुन्दर अन्त:पुर छोड़ा है। हतभाग्य मैंने तो ऐसा कुछ भी नहीं छोड़ा है फिर मैं भोग के लिए गृहवास में क्यों जाऊं? यह चिंतन कर वह निर्वेद को प्राप्त हुआ और आलोचन-प्रतिक्रमण कर संयम में स्थिर हो गया। यह नंदीषेण और साधु दोनों की पारिणामिकी बुद्धि है।
आवनि 588/22
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वल्कलचीरी (सनिमित्तक) जाति-स्मृति
राजा सोमचन्द्र और रानी धारिणी ने दिशाप्रोक्षित तापस के रूप में दीक्षा ग्रहण की। वे एक आश्रम में रहने लगे। दीक्षित होते समय रानी गर्भवती थी। समय पूरा होने पर रानी ने एक बालक को जन्म दिया। उसे वल्कल में रखने के कारण बालक का नाम वल्कलचीरी रखा।
कुछ वर्ष बीते। एक दिन कुमार वल्कलचीरी उटज में यह देखने के लिए गया कि राजर्षि पिता के उपकरण किस स्थिति में है? वहाँ वह अपने उत्तरीये के पल्ले से उनकी प्रतिलेखना करने लगा। अन्यान्य उपकरणों की प्रतिलेखना कर चुकने के बाद ज्योंही वह पात्र-केसरिका की प्रतिलेखना करने लगा तो प्रतिलेखना करते-करते उसने सोचा- 'मैंने ऐसी क्रियायें पहले भी की हैं।' वह विधि का अनुस्मरण करने लगा। तदावरणीय कर्मों का क्षयोपशम होने पर उसे जाति-स्मृति ज्ञान उत्पन्न हो गया, जिससे देवभव, मनुष्यभव तथा पूर्वाचरित श्रामण्य की स्मृति हो आई। इस स्मृति से उसका वैराग्य बढ़ा। धर्मध्यान से अतीत हो, विशुद्ध परिणामों में बढ़ता हुआ, शुक्लध्यान की दूसरी भूमिका का अतिक्रमण कर विकारों, आवरणों और अवरोधों को नष्ट कर वह केवली हो गया।
आवश्यक चूर्णि 1 पृ. 455-460
। कर्म-दर्शन 239